सीमा
सीमा
मातृभूमि पर जो न्योछावर कर दे अपनी जान को,
शीश कटे पर आँच ना आए उस पगड़ी की शान को।
एक कथन जो खबरों में यूँ ही उड़ के आ जाता है,
सीमा पे बारूद से फिर उसका जवाब दिया जाता है।
मासूम जाने कितने इस जंग में गुज़र जाते हैं,
कलम थामने की उम्र में बंदूक की ओर ढल जाते हैं।
देश मज़हब के नाम से बचपन से ही घबराते हैं,
अरे ये तो क्या परिंदे भी अब सीमा देख मुड़ जाते हैं।
चाँद की चमक भी उतनी सुंदर जितनी दीपों की ज्वाला है,
फिरनी में वही आनंद जो मीठी गुजियों में आता है।
मिल के देखो तो जग सुंदर ना धर्मों का बँटवारा है,
आखिर मुल्ला पंडित ने सबका मालिक एक बताया है।
सीमा पे ऐसा वार किया, निर्बल पे अत्याचार किया,
भेद भरे आवेश से तो बस लुप्त हुई मुस्कान।
ना कोई होता हिन्दू ना कोई मुसलमान,
आ पढ़ ले तू मेरी गीता, मैं पढ़ लूँ तेरी क़ुरान।