शर्त
शर्त
सबकी यहां अपनी-अपनी शर्त है
सब मांग रहे मुझसे अपना कर्ज है
क्या करें किधर जाये हम साखी,
सब ही रिश्ते हो गये यहां बेदर्द है
न ही घाव है, इस शरीर पर कोई,
न दिख रही है, चोट बाहर कोई,
भीतर महसूस हो रहा मुझे दर्द है
सब दे रहे कमबख़्त मुझे सिरदर्द है
कोई कहता तू ऐसे जी,
कोई कहता तू ऐसे पी,
ना रहा आजाद कोई मर्द है
शर्तों में उलझा जीवन-चक्र है
ऐसे उड़ रही रिश्तों की गर्द है
सबके चेहरे हुए आज जर्द है
ना रहा जग में कोई हमदर्द है
आंसुओं में डूब रहा हर मर्द है
इन शर्तों को तोड़ भी दे साखी,
अपने पंख खोल भी दे साखी,
वो ही चीरता शर्त ए हवा सर्द है
जो रहता अपने भीतर स्वतंत्र है