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श्रृंगार को रहने दो

श्रृंगार को रहने दो

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टीका, नथुनी, बिंदिया, बाली

सब झूठे हैं

मुझको तेरी अँखिया ही चंदा तारे हैं

चेहरे के उजलेपन से भी

क्या लेना है

स्याही भी तो नशा

रात - सा रखती है


तेरे गालो के दागों में अल्हड़पन है

जिनमें दुबके एक गिलहरी रहती है

बालो को गर्दन से उलझा रहने दो

मुझको इनकी सुलझन उलझन लगती है


साड़ी का पल्लू गर उल्टा बांध दिया

आ पास मेरे मैं ही सीधा कर देता हूँ

कमरबंद के मोती आखिर क्यूं देखूं

मेरी नज़रे एक घाटी पे नज़रबंद है


तेरी पायल की कड़ियाँ गर टूट गयी हैं

तू ही हँस दे वो भी तो छन

-छन जैसा है

बिछिया भी गर तेरी जूनी हो बैठी

छोड़ो इनको मुझको फिसलन में चुभती है


ये बातें-वो बातें

ये करना है वो करना है

ये पहनूँगी-ये बांधूंगी,

मैं थोड़ी देर में आऊंगी

आखिर इन सबका क्या करना


जब प्रीत चढ़ाए लहरों में

सागर से सरिता मिलती है

जब ओढ़ हवा की चुनरिया

निशा चाँद से मिलती है

कब कहती है कि रुक जाओ

कब कहती है कि जाने दो

तुम भी जैसी हो

वैसी आ जाओ

श्रृंगार को रहने दो

तुम भी जैसी हो

वैसी आ जाओ

श्रृंगार को रहने दो...!





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