श्रीमद्भागवत -९८ ;भटावटी का वर्णन और रहूगण का संशय नाश
श्रीमद्भागवत -९८ ;भटावटी का वर्णन और रहूगण का संशय नाश
जड़भरत कहें, राजन ये जीवनसमूह
व्योपारियों के दल के समान है
सुख रूप धन में आसक्त होकर जो
घूम घूम व्यापार करते हैं।
माया ने लगा दिया इसे
दुस्तर प्रवृत्तिमार्ग में
इसलिए इसकी आसक्ति होती
सात्विक, राजस, तामस कार्यों में।
इन कर्मों में भटकता हुआ
पहुंचे संसार रूप जंगल में
वहां पर पहुँचने पर भी
शांति मिले न तनिक भी इसे।
इस वणिक समाज का नायक बड़ा दुष्ट है
इस जंगल में छः डाकू हैं
जब ये समाज जंगल में पहुंचे
लुटेरे सब लूट लेते हैं।
जंगल ये बहुत बड़ा है
झाड़, झंखाड़ से दुर्गम हो रहा
चैन नहीं लेने देते हैं
नीव, दास और मच्छर वहां।
वहांपर इसे कभी दिखते हैं
गन्धर्वनगर और कभी बैताल दिखे
ये समुदाय आसक्त होता ही
निवास स्थान, जल, धनादि में।
इधर उधर भटकता रहता
इसी आसक्ति में, इस वन में
कभी बवंडरों से धूल उठे
भर जाये उसकी आँखों में।
कभी झींगुरों का कटु शब्द सुनाई दे
कभी भूख सताने लगती
सहारा टटोलने लगता है कभी
निंदनीय वृक्षों का ही।
कभी प्यास से व्याकुल होकर
मृगतृष्णा की तरफ दौड़ता।
कभी जलहीन नदियों की तरफ हो
कभी दावानल में झुलसता।
कभी अन्न न मिलने पर
आपस में एक दूसरे से
वो इच्छा रखता है ये
कि कोई दूसरा भोजन दे उसे।
यक्ष लोग कभी प्राण खींचें तो
यह खिन्न है होने लगता
कभी कोई इसका धन छीनता
शोक, मोह में दुखी हो जाता।
कभी गन्धर्व नगर में पहुंचकर
घडी भर के लिए ख़ुशी मनाता
कांटे, कंकड़ से उदास हो जाता
जब कभी पहाड़ पर चढ़ने लगता।
कुटुम्भ बहुत बढ़ जाता जब
और उदरपूर्ति का साधन नहीं हो
बंधू बांधवों को खीझने लगता
भूख से संतप्त होकर वो।
कभी वहां विषैले जंतु
उसको काटने लगते हैं जब
विष के प्रभाव से अँधा होकर
अंधे कुएं में गिर पड़ता तब।
मधु खोजने लग जाता कभी
मक्खियां नाक में दम कर देतीं
और जो वो अभिमान है करता
वो सारा नष्ट कर देतीं।
कभी अनेकों कठिनाई से
अगर इसे ये मिल भी जाता
तो भी उस को न पा सके
और कोई उसे छीन ले जाता।
कभी शीत, आंधी, वर्षा में
असमर्थ अपनी रक्षा करने में
कभी दूसरों से वैर करे
धोखा देकर धन के लोभ में।
कभी कभी इस संसार वन में
इसका धन नष्ट हो जाता
शय्या, आसन, रहने का स्थान और
सवारी आदि भी न रह पाता।
वो तब दूसरों से याचना करता
पर अभीष्ट वास्तु नहीं मिलती जब
पराई वास्तु पर दृष्टि रखने से
तिरस्कार सहना पड़ता तब।
व्यवहारिक संस्कार के कारण
होता द्वेष एक दुसरे से
वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित हैं करते
फिर भी ये वाणिक समूह आपस में।
फिर इस मार्ग के कष्ट भोग
मृत्यु शय्या पर ये आ जाता
जो साथी इसके मरते जाते
ये समूह उन्हें है छोड़ता जाता।
यह बंजारों का समूह फिर
जो नवीण उत्पन्न हुए हैं
उन सब को साथ में लेकर
आगे ही बढ़ता रहता है।
उन में से न कोई वापिस लोटा
न परमानन्दमय योग की शरण ली
दिग्पालों को भी जीता जिसने
मेरेपन का ही अभिमान उनमें भी।
भगवान विष्णु का पद न मिले उन्हें
वो मिलता है परमहंसों को
वैर हीन जो होते हैं
उन्हें ही ये पद प्राप्त हो।
इस भवाटवी में भटकने वाला
यह दल जो है बंजारों का
कभी पक्षिओं के मोह में फंसता
कभी गिद्धों से प्रीती करता।
जब उनसे धोखा होता तो
प्रवेश करना चाहे हंसों में
आचार उनका जब न सुहाता
मिल जाये तब वो वानरों में।
उनसे मिलकर उनके अनुसार ही
दाम्पत्य सुख में तृप्त रहता है
वृक्षों में क्रीड़ा करे, स्त्री पुत्र के
स्नेह पाश में बांध जाता है।
आयु की अवधि को भूल जाता वो
मैथुन की वासना इतनी बढ़ जाये
दीन होते हुए भी ये बंधन
तोड़ने का साहस न कर पाए।
माया की प्रेरणा से वो
इस मार्ग में पहुँच है जाता
परम पुरुषार्थ का पता उसे
अंत तक नहीं लग पता।
रहूगण, तुम भी तो इसी मार्ग में
भटक रहे हो कब से इसीलिए
दण्ड देने का कार्य छोड़कर
सुहृद हो जाओ सभी प्राणीयों के।
विषयों में अनासक्त होकर तुम
भागवत सेवा में लग जाओ
ज्ञान मिले इससे जो उससे
इस मार्ग को पार कर जाओ।
राजा रहूगण कहें, हे मुनिवर
मनुष्य जन्म श्रेष्ठ है सबसे
सारा अज्ञान मेरा नष्ट हो गया
दो घडी आप के सत्संग में।
शुकदेव जी कहें, हे परीक्षित
इस प्रकार जड़ भरत ने दिया
उपदेश आत्मतत्व का रहूगण को
जिसने उनका था पहले अपमान किया।
चरण वंदना की राजा ने उनकी
चले तब जड़भरत वहां से
शान्त चित हो पृथ्वी पर विचरें
देहाभिमान को त्यागा रहूगण ने।
परीक्षित कहें शुकदेव जी से कि
परम विद्वान हैं मुनिवर आप तो
यह संसार रूप वर्णन जो
समझ न आ सके अलप बुद्धि को।
पुरुष जो सुगमता से न समझ सके
उनके लिए मेरी प्रार्थना ये
विषय का स्पष्टीकरण कीजिये
समझाइये इसको हमें विस्तार से।
