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Ajay Singla

Classics

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Ajay Singla

Classics

श्रीमद्भागवत -९७; रहूगण के प्रश्न और भरत जी का समाधान

श्रीमद्भागवत -९७; रहूगण के प्रश्न और भरत जी का समाधान

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राजा रहूगण कहें, हे भगवन 

आप ने है ये देह धारण की 

इस पृथ्वी पर, इस जगत का 

उद्धार करने के लिए ही।


परमानन्दमय स्वरुप को अपने 

अनुभव करके इस स्थूल शरीर से 

आप उदासीन हो गए हैं 

विचरें एक जड़ ब्राह्मण के वेश में।


अपने इस ज्ञानस्वरूप को 

जनसाधारण से ओझल किया है 

आप जैसे ज्ञानी पुरुष को 

बार बार मेरा नमस्कार है।


मेरे जैसे अज्ञानी पुरुष जो 

देहाभिमान ने डसा है जिसको 

औषधि समान मैं हूँ मानता 

आप के अमृतमय वचनों को।


आप ने जो उपदेश दिया है 

सरल करके समझाइये उसको 

समझने की मुझे बड़ी उत्कंठा 

विस्तार से बतलाइये मुझे उसको।


योगेश्वर जी आपने कहा 

भार उठाने की प्रक्रिया जो है 

और फलरूप श्रम उसका जो 

केवल व्यवहार मूलक ही हैं।


वास्तव में ये सत्य नहीं है 

तत्व विचार के आगे भी न ठहरे 

मेरा मन है चकरा सा रहा 

सोच सोच कर इस विषय में।


आप के इस कथन का मर्म 

मेरी समझ में नहीं आ रहा 

रहूगण के प्रश्न को सुनकर 

जड़भरत ने तब ये कहा।


यह देह पृथ्वी का विकार है 

जब यह किसी कारण से 

पृथ्वी पर चलने लगता है 

भारवाही अदि नाम पड़ जाते।


नीचे इसके दो चरण हैं 

उसके ऊपर टखने, पिण्डलियां हैं 

घुटने, जांघ, कमर, वक्षस्थल 

गर्दन और कंधे आदि हैं।


कंधे ऊपर रखी है पालकी 

जिसमें बैठा पार्थिव विकार है 

मद में अंधे तुम हो रहे 

अभिमान करके कि हूँ राजा मैं।


किन्तु श्रेष्ठता सिद्ध न हो 

इसमें कोई भी तुम्हारी 

वास्तव में तो तुम बड़े दुष्ट हो 

क्रूरता भी देखी तुम्हारी।


तुमने इन दीन कहारों को 

जोत रखा है जो पालकी में 

फिर कहो मैं प्रजा का रक्षक 

महापुरुषों की सभा में।


देखें हम कि सम्पूर्ण चराचर भूत 

पृथ्वी से उत्पन्न है होता 

और फिर प्रलय आने पर 

पृथ्वी में ही लीन हो जाता।


उनके क्रिया मोह के कारण 

नाम अलग अलग पड़ गया उनका 

बताओ तो उनके सिवा और 

क्या मूल है व्यवहार का।


इस तरह पृथ्वी शब्द का 

व्यवहार भी मिथ्या ही है 

वास्तविक नहीं ये क्योंकि 

परमाणु में ये लीन होती है।


और ये परमाणु जो है 

जिनके मिलने से पृथ्वी बनती 

ये सब भगवान की माया है 

इनकी भी कोई सत्ता नहीं।


परिपूर्ण ज्ञान ही सत्य वस्तु 

ये सर्वथा निर्विकार है 

इसी को हम वासुदेव हैं कहते 

नाम इसी का ही भगवान है।

 

तप, यज्ञादि कर्मों से और 

वेद अध्यन, अथिति सेवा से 

जल, अग्नि, सूर्य की उपासना 

या दान किये अन्नादि से।


परमात्मज्ञान प्राप्त नहीं होता 

इन सब वैदिक कर्मों से 

यह तो प्राप्त हो सकता है 

चरणों में महापुरुषों के।


महापुरुषों के समाज में 

चर्चा होती हरि गुणों की 

भागवत कथा का सेवन किया जाता 

उससे बुद्धि शुद्ध हो जाती।


पूर्व जन्म में मैं एक राजा था 

प्रभु आराधना में लगा रहता था 

एक मृग की आसक्ति ने मुझे 

भक्ति से भ्रष्ट कर दिया।


अगले जन्म में मृग बनना पड़ा 

पूर्व जन्म की स्मृति थी मुझे 

इसी से अब पृथ्वी पर विचरूँ 

संग से डरकर, गुप्त रूप में।


इस सब का सारांश यही है 

महापुरुषों से ज्ञान लेकर मनुष्य को 

चाहिए की इसी जन्म में 

काट डाले वो मोह बंधन को।


फिर कथन और श्रवण के कारण 

श्री हरी की लीलाओं को 

सुगमता से निकले संसार मार्ग से 

प्राप्त कर ले वो भगवान को।



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