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Ajay Singla

Classics

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Ajay Singla

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श्रीमद्भागवत -७१ ; महाराज पृथु का आविर्भाव और राजयभिषेक

श्रीमद्भागवत -७१ ; महाराज पृथु का आविर्भाव और राजयभिषेक

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मैत्रेय जी तब कहें विदुर से 

उसके बाद उन सभी ब्राह्मणों ने 

वेन की भुजाओं का मंथन किया 

स्त्री - पुरुष निकले उसमें से।


भगवान हरि का अंश मान उन्हें 

ऋषि प्रसन्न हुए और बोले 

पुरुष रूप में भगवन विष्णु हैं 

लक्ष्मी का अवतार स्त्री ये।


अपने सुयश का प्रथन ये पुरुष करें 

इसीलिए पृथु नाम हो इसका 

यह स्त्री इसकी पत्नी होगी 

अर्चि नाम अब इसका होगा।


उस समय जो ब्राह्मण लोग वहां 

पृथु जी की स्तुति करने लगे 

समस्त देवता, ऋषि आये वहां 

आये ब्रह्मा अपने लोकों से।


उन सबने महाराज पृथु का 

विधिवत राज्याभिषेक किया था 

वरुण ने चद्रमाँ समान छत्र दिया 

कुबेर ने सिंहासन दिया था।


इंद्र ने मुकुट, ब्रह्मा ने कवच 

सरस्वती ने हार दिया था 

विष्णु ने सुदर्शन चक्र दिया 

शंख समुद्र ने दिया था।


पृथ्वी ने उन्हें पादुकाएं दीं 

जिनसे चरण स्पर्श करते ही 

जिस स्थान का सोचें वो 

अभीष्ट स्थान पर पहुंचा देतीं।


इसके बाद सूतजी और 

वंदीजन लोग आये वहां थे 

उपस्थित हो उनके सामने 

स्तुति पृथु की करने लगे थे।


उन सब का अभिप्राय समझकर 

गंभीर वाणी में पृथु ने कहा 

मेरी स्तुति तुम क्यों कर रहे 

अभी मेरा गुण कोई प्रकट न हुआ।


वाणी व्यर्थ न होने पाए 

मेरे विषय में तुम्हारी 

स्तुति छोड़ इसीलिए मेरी 

आप स्तुति करें किसी और की।


मेरे गुण तो अप्रकट हैं 

जब प्रकट हों कालांतर में 

उस समय मधुर वाणी में 

जी भर कर मेरी स्तुति करें।


शिष्ट पुरुष स्तुति न करें मनुष्य की 

श्री हरी के गुणानुवाद के रहते 

और समर्थ पुरुष जो होते 

स्तुति को अपनी निन्दित मानते।


प्रसिद्धि कोई न लोक में 

कोई भी ऐसा कर्म न किया 

जिसका इस तरह गान कराएं 

जिसकी की जाये प्रशंसा।



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