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Ajay Singla

Classics

4  

Ajay Singla

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श्रीमद्भागवत -६५ ;ध्रुव का वर पाकर घर लौटना

श्रीमद्भागवत -६५ ;ध्रुव का वर पाकर घर लौटना

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भगवान के आश्वासन देने पर 

भय जाता रहा देवताओं में 

प्रणाम किया सभी ने हरि को 

फिर अपने लोक चले गए।


विराटरूप भगवा न हरि तब 

चढ़कर अपने वाहन गरुड़ पर 

देख रहे भक्त को अपने 

श्री हरि मधुवन में आकर।


ह्रदय में ध्रुव ध्यान करें मूर्ती का 

वो मूर्ती विलीन हो गयी 

घबराकर जब आँखें खोलीं तो 

हरि मूर्ती सामने खड़ी थी।


प्रभु के दर्शन पाकर ध्रुव जी 

प्रेम से आधीर हो गए 

दण्डवत प्रणाम किया हरि को 

हाथ जोड़ वो खड़े हो गए।


करना चाहें स्तुति भगवान की 

न जानें वो पर कैसे करें 

अंतर्यामी भगवान ने उनके 

गाल को छू दिया शंख से।


शंख के स्पर्श से ध्रुव को 

दिव्य वाणी प्राप्त हो गयी 

और अत्यंत भक्ति भाव से 

स्तुति हरि की उन्होंने तब की।


भगवान स्तुति से प्रसन्न होकर फिर 

करते जाएं ध्रुव की प्रशंशा 

कहने लगे कल्याण हो तेरा 

जानूं मैं तुम्हारी क्या मंशा।


कठिन है वो पद प्राप्त करना 

फिर भी मैं तुम्हे देता हूँ 

अभी तक किसी को प्राप्त न हुआ 

वो ध्रुवपद तुम्हे देता हूँ।


चारों और इस अविनाशी लोक के 

ग्रह, नक्षत्र चक्र काटते 

तब भी ये लोक स्थिर रहता है 

जब बाकि लोक ग्रास हो जाते।


तारागण, धर्म, अग्नि, कश्यप और 

शुक्रदि जिसकी प्रदक्षिणा करते 

वह लोक मैंने तुम्हे दिया 

ध्रुव लोक बहुत उत्तम ये।


यहाँ भी, जब तेरे पिता तुम्हे 

राजसिंहासन दे वन जाएं जब 

पृथ्वी का पालन करेगा 

छत्तीस हजार वर्ष तक तू तब।


आगे चल कर तेरा भाई उत्तम 

मारा जायेगा, शिकार खेलते 

उसकी माता सुरुचि पुत्र प्रेम में 

प्रवेश करेगी दावानल में।


यज्ञ मेरी प्रिय मूर्ती हैं 

तू अनेकों यज्ञ करेगा 

यहाँ उत्तम भोग भोगकर 

अंत में मेरा ही स्मरण करेगा।


मेरे निजधाम को जायेगा तू 

न आना पड़े जहाँ से लौट कर 

भगवान अपने लोक चले गए 

भक्त ध्रुव से ये सब कहकर।


मनचाही वास्तु प्राप्त कर प्रभु से 

निवृत हो गया उनका संकल्प तो 

पर चित विशेष प्रसन्न न उनका 

फिर लौटने लगे अपने नगर को।


विदुर जी पूछें कि श्री हरि का 

परमपद है अत्यंत दुर्लभ वो 

एक जन्म में पाकर भी उसे क्यों 

ध्रुव अकृतार्थ समझें अपने को।


मैत्रेय जी कहें, ध्रुव जी का ह्रदय 

बिंधा था सौतेली माँ की बातों से 

 इसका स्मरण बना हुआ था 

वर मांगते समय भी उन्हें।


इसीलिए मुक्ति न मांगी थी 

पर भगवत्दर्शन हुआ जब 

सारा मनोमालिन्य मिट गया 

पश्चाताप उनको हुआ तब।


ध्रुव जी मन ही मन कहने लगे 

योगी पाएं जिन्हें कई जन्मों में 

छ महीने में मैंने पाया उन्हें 

फिर भी दूर मैं हो गया उनसे।


चरणों में पहुँच कर भी प्रभु के 

याचना की नाशवान वस्तु की

भाई को ही शत्रु समझ लिया 

मोहित हो भगवान की माया से ही।


श्री हरि की तपस्या कर मैंने 

प्रसन्न कर, माँगा जो उनसे 

मूर्ख मैं, ये सब व्यर्थ है 

बस सिर्फ अभिमान बढे इससे।


मैत्रेय जी कहें कि हे विदुर जी 

बस सेवा ही मांगें भगवान से 

उन की चरण रज का मन से 

तुम्हारी तरह जो सेवन करते।


उधर जब उत्तानपाद ने सुना 

उनका पुत्र ध्रुव घर लौट रहा 

पहले तो विश्वास न हुआ 

सोचें मेरे ऐसे भाग्य कहाँ।


नारद की बात फिर याद आ गयी 

और वो प्रसन्न हो गए 

लोगों को साथ ले, रथ पर चढ़कर 

नगर के बाहर वो आ गए।


दोनों रानी और बेटा उत्तम 

उस वक्त उनके साथ थे

जब देखा था पुत्र ध्रुव को 

भुजाओं में लेकर प्यार करें उसे।


आँखों में आंसू भर आये 

ध्रुव ने भी प्रणाम किया उन्हें 

माताओं को भी प्रणाम किया 

प्रेम से मिले भाई उत्तम से।


सुनीति ने ध्रुव पुत्र को अपने 

गले लगाकर मन हल्का किया 

संताप सारा वो भूल गयीं तब 

सुरुचि ने भी आशीर्वाद दिया।


नगर के सभी लोग जो वहां 

ध्रुव को देख सभी प्रसन्न थे 

नगर, महल सजाया ध्रुव के लिए 

आनंद पूर्वक वो वहां रहने लगे।


तरुण अवस्था जब आई ध्रुव की 

प्रजा भी देखे उन्हें आदर से 

देख ये राज्य ध्रुव को सौंप कर 

उत्तानपाद वन को चले गए।


 















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