श्रीमद्भागवत-२९८ ः बद्ध, मुक्त और भक्तजनों के लक्षण
श्रीमद्भागवत-२९८ ः बद्ध, मुक्त और भक्तजनों के लक्षण
भगवान कृष्ण कहें, “ प्यारे उद्धव
शोक, मोह, सुख, दुःख सब ये
और शरीर की उत्पत्ति, और मृत्यु
यह सब समय की माया से।
और अविद्या के कारण प्रतीत हों
परंतु वास्तविक नही ये
आत्मविद्या और अविद्या
दोनों ही मेरी आदि शक्तियाँ ये।
शरीरधारियों को मुक्ति का
अनुभव कराती ये आत्मविद्या
और जो बंधन का अनुभव कराए
उसी को कहते हैं अविद्या।
मेरी माया से ही रचना हुई इनकी
वास्तविक अस्तित्व इनका कोई ना
जीव तो एक ही है, व्यवहार के लिए ही
मेरे अंश के रूप में कल्पित हुआ।
मेरा स्वरूप ही जीव ये
आत्मज्ञान से सम्पन्न होने से
उसे मुक्त कहें, और बद्ध कहें
आत्मज्ञान ना होने से।
बद्ध और मुक्त का जो भेद है
ये तो है दो प्रकार का
स्थान एक ही शरीर में
जीव और प्रभु ईश्वर का।
ऐसा समझो शरीर एक वृक्ष है
हृदय का घोंसला बनाकर उसमें
जीव और ईश्वर नाम के
दो पक्षी उसमें हैं रहते।
चेतन होने के कारण। होती
सखा है क्योंकि बिछड़ें ना कभी
इनके निवास करने का कारण
होती है केवल लीला ही।
इतनी समानता होने पर भी
एक पक्षी जीव जो है
शरीर रूपी वृक्ष के फल
सुख दुःख वो भोगता ही है।
परंतु ईश्वर उन्हें ना भोगकर
साक्षीमात्र बना रहता उनका
अभोगता होने पर भी ईश्वर
वास्तविक स्वरूप को भी जानता।
ईश्वर इसके अतिरिक्त जगत को
भी जानता, परंतु जीव ये
ना अपने वास्तविक रूप को जाने
ना अतिरिक्त को अपने से।
अविद्या में युक्त होने के कारण
नित्यबद्ध है ये जीव तो
विद्यस्वरूप होने के कारण
नित्यमुक्त है ईश्वर ये जो।
मुक्त ही है ज्ञानसम्पन्न पुरुष भी
सूक्ष्म, स्थूल शरीर में रहने पर भी
ज्ञानीपुरुष सम्बन्ध ना रखे
उससे किसी प्रकार का भी।
परंतु अज्ञानी पुरुष वास्तव में
शरीर से सम्बंध ना रखने पर भी
अज्ञान के कारण स्थित रहता है
अपने इस शरीर में ही।
निर्विकार आत्मा स्वरूप को
समझ लिया है जिसने अपने
किसी प्रकार का अभिमान नही करता
वो इन विषयों के ग्रहण, त्याग में।
शरीर ये प्रारब्ध के अधीन है
शरीरीक मानसिक कर्म होते जितने
होते है ये सब तो बस
तीनों गुणों की प्रेरणा से।
अज्ञानी पुरुष झूठमूठ अपने को
उन ग्रहण, त्याग आदि कर्मों का
करता मान लेता है और
इसी अभिमान के कारण बंध जाता।
समस्त विषयों से विरक्त हुआ
विवेकी पुरुष होता है जो
बैठने, खाने, पीने आदि क्रियाओं का
करता नही मानता अपने को।
गुणों को उनका करता माने वो
गुण हो करता भोगता कर्मों के
ऐसा जानकर ही विद्वान पुरुष
कर्म वासना, फलों में नही बंधते।
वो प्रकृति में रहकर भी
असंग रहते हैं ऐसे जैसे
वायु गंध से, आर्द्रता से सूर्य
और आकाश जैसे स्पर्श आदि से।
अपनी बुद्धि से अपने सारे
संशय, सन्देहों को काट डालते
मुक्त पुरुष सताने से ना दुखी हों
ना सुखी हों किसी के पूजा करने से।
अच्छे काम करने वालों की
ना तो स्तुति करते वे
और ना निन्दा करें उनकी
जो बुरा काम हों करने वाले।
ना तो सराहना करते हैं
किसी की अच्छी बात सुनकर वे
और ना बुरी बात सुनकर
किसी को वो हैं झिड़कते।
जीवनमुक्त पुरुष ना तो कुछ
भला या बुरा बुरा काम करते हैं
ना कुछ भला बुरा करते वो
और ऐसा सोचते भी नही हैं।
आत्मानंद में मगन रहते वो
मानो जड़ के समान मूर्ख कोई
और पृथ्वी पर विचरा करें
वो मूर्खों के समान ही।
विद्वान है जो पुरुष वेदों का
परंतु पारब्रह्म के ज्ञान से शून्य हो
उसके परिश्रम का कोई फल नही जैसे
बिना दूध की गाय को पाले जो।
दूध ना देने वाली गाय
पराधीन शरीर, व्यभचारिणी स्त्री
सत्यपात्र को भी दान ना दिया हुआ धन
मेरे गुणों से रहित जो वाणी।
ये सब के सब व्यर्थ हैं
और जो इन वस्तुओं की
रखवाली करने वाले हैं
भोगते रहते वो दुःख पर दुःख ही।
आत्मजिज्ञासा और विचार से
अनेकता का भ्रम है जो आत्मा में
पुरुष इस भ्रम को दूर करे और
अपना मन परमात्मा में लगा दे।
तथा उपरत हो जाए वो
संसार के व्यवहारों से
परब्रह्म में स्थित ना हो सके मन तो
सब कर्म मेरे lलिए ही करे।
श्रद्धा से सुने मेरी कथाओं को
मेरे आश्रित रह, मेरे ही लिए
धर्म, काम और अर्थ का
सेवन उसको करना चाहिए।
ऐसा करता है जो उसे
मेरी प्रेमभरी भक्ति प्राप्त हो
अंतकरण शुद्ध हो जाता उसका
परमपद को मेरे प्राप्त हो वो।
उद्धव जी ने पूछा, भगवन
आपकी कीर्ति का गान जो करते
बड़े बड़े जो संत महात्मा
क्या लक्षण उन संत पुरुषों के।
कैसी भक्ति करनी चाहिए आपके प्रति
संतलोग आदर करते जिसका
रहस्य बतायिए आप मुझे अब
इस भक्ति और भक्त का।
श्री कृष्ण कहते हैं, उद्धव
कृपा की मूर्ति होता भक्त मेरा
वैरभाव किसी से ना रखे वो
दुःख प्रसन्नता पूर्वक सहता।
पाप वासना नही आती मन में
सत्य उसके जीवन का सार है
वह समदर्शी होता और सबका
भला करने वाला होता है।
बुद्धि कामवासनाओं से कल्पित नहीं
संयमी, मधुर स्वभाव, पवित्र वो
संग्रह, परिग्रह से सर्वथा दूर रहे
किसी वस्तु के लिए चेष्ठा ना करे वो।
परिमित भोजन करे, शान्त रहे
स्थिर होती है बुद्धि उसकी
केवल मेरा ही अभीष्ट होता
संलग्न रहे आत्मचिंतन में ही।
भूख - प्यास, शोक - मोह, जन्म - मृत्यु
ये छहों बस में रहते हैं उसके
हृदय में करूणा भी होती
ज्ञान होता मेरे तत्व का उसे।
वेदों और शास्त्रों के रूप में
उपदेश किया है मैंने जो
विक्षेप समझ उनको भी त्याग दे
लगा रहे मेरे भजन में ही वो।
वही मनुष्य परम संत है
और मेरे भक्त को चाहिए
मेरा दर्शन, मेरी पूजा
और मेरे गुणों का कीर्तन करे।
जो कुछ मिले, उसे समर्पित कर
मेरे जन्म, कर्मों की चर्चा करे
सूर्य, अग्नि और ब्राह्मण आदि
हैं स्थान मेरी पूजा के।
ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद के
मंत्रों के द्वारा सूर्य में
हवन के द्वारा अग्नि में
मेरी पूजा करनी चाहिए।
आतिथ्य द्वारा श्रेष्ठ ब्राह्मणों में
हरि घास आदि के द्वारा गो में
वैष्णव में सत्कार के द्वारा
मुख्य प्राण समझने से वायु में।
जल पुष्प आदि सामग्रियों द्वारा जल में
गुप्त मंत्रों से मिट्टी की वेदी में
आत्मा में उपयुक्त भोगों द्वारा
समदृष्टि द्वारा सम्पूर्ण प्राणियों में।
आराधना करनी चाहिए ऐसे मेरी
उद्धव मेरा ऐसा निश्चय है कि
अनुशठान करते रहना चाहिए
सत्संग, भक्तियोग का एक साथ ही।
प्रायः इन दोनों के अतिरिक्त
संसार सागर को पार करने का
कोई उपाय नहीं है क्योंकि
एकमात्र आश्रय मैं संत पुरुषों का।