श्रीमद्भागवत-२७८; सुदामा जी को ऐश्वर्य की प्राप्ति
श्रीमद्भागवत-२७८; सुदामा जी को ऐश्वर्य की प्राप्ति
श्री शुकदेव जी कहते हैं, परीक्षित
जानते ही हैं भगवान कृष्ण तो
सबके मन की बात को और वे
ब्राह्मण भक्त, उनके एकमात्र आश्रय वो।
बड़ी देर तक बात करते रहे
अपने सखा सुदामा से वे
ब्राह्मण, मेरे लिए क्या लाया’
विनोद करते हुए पूछा उनसे।
थोड़ी सी वस्तु भी मुझे
अर्पण करते जब भक्त मेरे
मेरे प्रिय भक्तों की वो वस्तु
बहुत हो जाती मेरे लिए।
परन्तु अभक्त यदि बहुत सामग्री
भी मुझे अर्पण करते हैं
जितनी भी वो मुझे भेंट करें
संतुष्ट नहीं होता उससे मैं ‘।
कृष्ण के ऐसा कहने पर भी
लज्जावश सुदामा जी ने
चार मुट्ठी चिवड़े नहीं दिए
जो पत्नी ने उन्हें दिए थे।
संकोच से मुँह नीचे क़र लिया
भगवान कृष्ण सब कुछ जानते
आने का कारण ब्राह्मण के
क्या है, विचार करने लगे।
सोचें एक तो मेरा सखा ये
और दूसरे कभी पहले इसने
मेरा भजन नहीं किया है
कभी भी लक्ष्मी की कामना से।
अवश्य ही पतिव्रता पत्नी को
प्रसन्न करने के लिए ही
उसी के आग्रह से यहाँ आया
अतः इस ब्राह्मण को मैं भी।
ऐसी सम्पत्ति दूँगा जो कि
दूर्लभ है देवताओं को भी
ऐसा विचार कर भगवान कृष्ण ने
छीन ली उसकी पोटली।
और सुदामा से पूछें वो
क्या छुपा रखा पोटली में
अत्यन्त प्रिय भेंट लाए हो’
देखकर चिवड़े को बोले वे।
ये चिवड़े ना केवल मुझको
पर्याप्त हैं तृप्त करने के लिए
बल्कि ये तृप्त कर देंगे
मेरे साथ संसार को सारे ‘।
ऐसा कहकर भगवान श्री कृष्ण
एक मुट्ठी चिवड़ा खा गए
दूसरी मुट्ठी खाने लगे तो
हाथ पकड़ लिया रुक्मिणी जी ने।
क्योंकि लक्ष्मी जी का रूप वो
एकमात्र परायण भगवान के
जा सकतीं उनको छोड़कर
और कहीं भी नहींं वे।
रुक्मिणी जी ने कहा श्री कृष्ण से
‘प्रभु आप अब बस कीजिए
एक मुट्ठी चिवड़ा ही बहुत है
मनुष्य की समृद्धि के लिए।
इस लोक में मनुष्य को
और मरने के बाद परलोक में
एक मुट्ठी चिवड़े के बदले
समस्त सम्पत्तियाँ प्राप्त हो जाएँ।
क्योंकि आप प्रसन्न हो जाते
भक्त की छोटी सी भेंट से ‘
परीक्षित, सुदामा उस रात को
कृष्ण के महल में ही रहे।
उनको लगा जैसे पहुँच गया
मैं वैकुण्ठ में भगवान के
वैसे तो कुछ भी ना दिया
प्रत्यक्ष रूप से कृष्ण ने उन्हें।
फिर भी उन्होंने कुछ ना माँगा
चित की करतूतों पर लज्जित हो
कृष्ण के स्वरूप में डूबते उतराते
चल पड़े वो अपने घर को।
मन ही मन सोचें सुदामा
कितने सौभाग्य की बात ये
कि भगवान श्री कृष्ण को
अपनी आँखों से देखा मैंने।
लक्ष्मी सदा विराजमान रहे
जिनके वक्षस्थल पर उन्होंने
मुझ अत्यंत दरिद्र को भी
लगा लिया अपने हृदय से।
इतना ही नहीं उन्होंने मुझे
पलंग पर सुलाया था अपने
मानो उनका सगा भाई मैं
चँवर झुलाया रुक्मिणी जी ने।
कृष्ण ने मेरे पाँव दबाए
खिलाया, पिलाया, सेवा, पूजा की
समस्त योगसिधियों की प्राप्ति का
मूल, धूल चरणों की उनकी।
फिर भी परमदयालु कृष्ण ने
यह सोचकर मुझे धन ना दिया
कि कहीं मैं दरिद्र धन पाकर
उनको ही भूल बैठूँ ना।
इस प्रकार सोचते सोचते
घर के पास पहुँच गए वे
देखें कि निवासस्थान जो उनका
घिरा हुआ बड़े बड़े महलों से।
देखें उद्यान बने हुए वहाँ
सरोवरों में कमल खिल रहे
यह कौन सा, किसका स्थान है
देखकर सोचने लगे वे।
और यह यदि वो स्थान है
मैं पहले रहता था जिसमें
तो ये ऐसा कैसे हो गया
वो ये सब सोच ही रहे थे।
तभी सुंदर सुंदर स्त्री पुरुष
आए अगवानी करने उनकी
शुभागमन सुनकर पति का
ब्राह्मणी भी घर के बाहर आ गयीं।
ऐसे मालूम होतीं वो जैसे
मूर्तिमान लक्ष्मी जी ही
नेत्रों में आंसू छलक गए
पतिदेव को सामने देखते ही।
शोभा देख अपनी पत्नी की
सुदामा बहुत विस्मित हो गए
एक बहुत भव्य महल में
प्रवेश किया फिर दोनों ने।
इंद्र के निवासस्थान समान महल वो
और इन सब का कारण जानकर
बड़ी गंभीर वाणी से फिर
सुदामा ने पूछा सोच विचारकर।
इतनी सम्पत्ति मेरे पास में
कहाँ से आ गयी अचानक ही
मन हो मन विचार कर रहे
अवश्य ही कृपा से भगवान की।
बस भगवान की कृपा ही इसका
एकमात्र कारण हो सकती
भक्त के मन के भाव जानें वो
देन ये उनकी करुणा की ही।
बहुत ज़्यादा दे देते हैं वे
परंतु समझते थोड़ा दिया है
और भक्त थोड़ा भी करे तो
बहुत ज़्यादा समझ लेते है।
देखो तो सही मैंने उन्हें बस
एक मुट्ठी चिवड़ा दिया था
और उन्होंने कितने प्रेम से
चिवड़े को स्वीकार किया था।
उन्ही का प्रेम, उन्हीं की मित्रता
जन्मों जन्मों तक प्राप्त हो मुझे
सम्पत्ति की मुझे आवश्यकता नहीं
अनुराग चाहिए उनके चरणों में।
उनके ही प्रेमी भक्तों का
सत्संग प्राप्त होता रहे मुझे
ऐश्वर्य मद से पतन हो जाता
बड़े बड़े धनियों का धन से।
इसीलिए उनके भक्त जो
सम्पत्ति, राज्य, ऐश्वर्य ना लें
दिनो दिन बढ़ने लगी थी
उनकी भक्ति भगवान कृष्ण में।
प्रिय परीक्षित, भगवान श्री कृष्ण
इष्टदेव मानें ब्राह्मणों को
प्रभु अजित, किसी के अधीन ना
परंतु भक्तों के हैं अधीन वो।
अब ये जो सुदामा ब्राह्मण थे
भगवान के ध्यान में तन्मय हो गए
भगवान का धाम प्राप्त कर लिया
उन्होंने थोड़े ही समय में।