श्रीमद्भागवत -१७१; बलि का बंधन से छूटकर सुतल लोक में जाना
श्रीमद्भागवत -१७१; बलि का बंधन से छूटकर सुतल लोक में जाना
श्रीमद्भागवत -१७१; बलि का बंधन से छूटकर सुतल लोक में जाना
श्री शुकदेवजी कहते हैं जब
इस प्रकार कहा भगवान ने
नेत्रों से छलक पड़े आंसू
तब दैत्यराज बलि के।
हाथ जोड़ गदगद वाणी से
भगवान से वे कहने लगे
मैंने तो बस चेष्टा की प्रणाम करने की
पूरा प्रणाम भी किया न मैंने।
इसीसे मुझे वह मिल गया जो
आपके शरणागत भक्तों को प्राप्त हो
सहज प्राप्त हुआ मुझ नीच असुर को
जो न प्राप्त हो देवताओं को।
श्री शुकदेवजी कहते हैं परीक्षित
वरुण के पाशों से मुक्त हुआ बलि
ब्रह्मा, शंकर को प्रणाम कर
सुतल लोक की उन्होंने यात्रा की।
स्वर्ग का राज्य ले बलि से
इंद्र को दिया भगवान ने ऐसे
अदिति की कामना पूरी की
उपेंद्र बन स्वयं जगत का शासन करें।
जब प्रह्लाद जी ने देखा कि
पौत्र बलि के बंधन हैं छूट गए
और कृपाप्रसाद प्रभु का मिला उसे
तब भगवान की वो ऐसे स्तुति करें।
कहें प्रभु, ये कृपाप्रसाद जो
ब्रह्मा जी को भी न प्राप्त हो
लक्ष्मी जी, शंकर जी को भी न मिले
बात की क्या है दूसरों की तो।
विशववन्द्य ब्रह्मा आदि भी
जिनके चरणों में वंदना करते
वही आप हम असुरों के
दुर्गपाल-किलेदार हो गए।
खल और कुमार्गगामी हैं
जन्म से ही जो हम लोग सभी
हमारे द्वारपाल आप बन गए
ये कैसी अनुग्रह पूर्ण दृष्टि हुई।
भगवान कहें, बेटा प्रह्लाद अब
तुम भी जाओ सुतल लोक में
आनंद पूर्वक रहो वहां पर
पौत्र बलि और बंधुओं के साथ में।
गदा हाथ में लिए खड़ा देखोगे
मुझे तुम नित्य ही वहां पर
मस्तक पर चढ़ाया आदेश प्रभु का
प्रह्लादजी ने '' जो आज्ञा '' कहकर।
सुतल लोक जब जा रहे प्रह्लाद जी
शुक्राचार्य जी वहां बैठे थे
''शिष्य तुम्हारा था यज्ञ कर रहा ''
भगवान ने कहा दैत्य गुरु से।
त्रुटि रह गयी हो जो भी कोई
भगवान कहें कि उस यज्ञ में
उसे आप पूर्ण कीजिये
ये सुन, शुक्राचार्य जी कहें।
भगवान, अपने समस्त कर्म ही
समर्पित करके आपको जिसने
आप परमपुरुष की पूजा की
कोई त्रुटि कैसे हो उसके कर्म में।
आपके नाम संकीर्तन मात्र से
सुधर जाती हैं भूलें सारी
सारी त्रुटियों को पूर्ण कर दे
बस एक आप का नाम ही।
फिर भी मैं पालन करूंगा
आप की आज्ञा का, अवश्य ही
शुक्राचार्य जी ने पूर्ण कर दी
यज्ञ में जो कमी थी रह गयी।
प्राणियों के अभ्युदय के लिए
ब्रह्मा जी ने अभिषेक कर दिया
समस्त लोक, लोकपालों के स्वामी
वामन भगवान को उपेंद्र का पद दिया।
ब्रह्मा जी की अनुमति से
लोकपालों के साथ इंद्र ने
विमान में बैठाया वामन भगवान को
स्वर्ग में उन्हें लिवा ले गए।
श्री शुकदेव जी कहें, परीक्षित
लीलाएं अनंत हैं भगवान की
उनकी महिमा अपार है
पार न पा सकता उनका कोई।
मन्त्रद्रष्टा महर्षि वशिष्ठ ने
प्रभु के सम्बन्ध में वेदों में है कहा
भगवान की महिमा का पार जो पा सके
ऐसा पुरुष, न कभी हुआ, न है, न होगा।
देवयज्ञ, पितृयज्ञ और मनुष्ययज्ञ
अनुष्ठान करते समय किसी भी कर्म का
इस लीला का कीर्तन होता जहाँ
कर्म सफलता पूर्वक हो जाता।