श्रीमद्भागवत -१५१; गजेंद्र के द्वारा भगवान की स्तुति और संकट से मुक्त होना
श्रीमद्भागवत -१५१; गजेंद्र के द्वारा भगवान की स्तुति और संकट से मुक्त होना
शुकदेव जी कहें, हे परीक्षित
निश्चय कर अपनी बुद्धि से
गजेंद्र ने फिर अपने मन को
एकाग्र किया अपने हृदय में।
और पूर्व जन्मों के सीखे हुए
श्रेष्ठ स्तोत्रों के जाप द्वारा
भगवान की स्तुति करने लगा
और गजेंद्र ने ऐसे कहा।
जगत के जो मूल कारण हैं
एवं जगत के स्वामी हैं
उन भगवान की स्तुति करूं
नमस्कार करता उनको मैं।
उन स्वयं प्रकाश, स्वयंसिद्ध और
सनात्मक भगवान की मैं
शर्म ग्रहण करूँ, वो ही समस्त
कार्य, कारण से अतीत प्रभु हैं।
वो ही मेरी रक्षा करें अब
बहुरूप हैं, अरूप होने पर भी वो
अत्यंत आश्चर्यजनक उनके कर्म हैं
नमस्कार करता मैं उनको।
समस्त क्षेत्रों के एकमात्र ज्ञाता
सर्व साक्षी, और सबके स्वामी
परम दयालु परमात्मा हैं वो
उद्धार को मेरे प्रकट हों वो ही।
मैं शरण में उन पर ब्रह्म की
आप शरणागत वत्सल हैं
आप की महिमा पार है
बार बार मेरा नमस्कार है।
शुकदेव जी कहें, हे परीक्षित
गजेंद्र ने बिना भेद भाव के
स्तुति की थी वहां पर
भगवान की निर्विशेष रूप में।
इसलिए ब्रह्मादि देवता
जो अपना स्वरूप मानते
भिन्न भिन्न नाम और रूप को
नहीं आये उसकी रक्षा के लिए।
सर्वात्मा होने के कारण
सर्वदेव स्वरूप स्वयं श्री हरि
उस समय वहां प्रकट हुए
सवार गरुड़ पर चक्रधारी।
भगवान ने वहां देखा कि
गजेंद्र अत्यंत पीड़ित हो रहा
शीघ्रता से वहां के लिए चल पड़े
जहाँ पर गजेंद्र संकट में था पड़ा।
गजेंद्र बहुत व्याकुल हो रहा
ग्राह के पकड़े जाने से
जब आकाश में श्री हरि को देखा
गरुड़ पर आरूढ़, हाथ में चक्र लिए।
अपनी सूंड में कमल का पुष्प ले
उसने उठाया ऊपर को
बोला नारायण, हे जगद्गुरु
नमस्कार मेरा आपको।
गजेंद्र को व्याकुल देखकर
हरि गरुड़ से कूद पड़े थे
गजेंद्र और ग्राह दोनों को
सरोवर से निकाल लाये वे।
और देवता जो साथ आये थे
उनके सामने ही हरि ने
गजेंद्र को छुड़ा लिया और
ग्राह का मुंह फाड़ा चक्र से।