श्रीमद्भागवत -१५०; ग्राह के द्वारा गजेन्द्र का पकड़ा जाना
श्रीमद्भागवत -१५०; ग्राह के द्वारा गजेन्द्र का पकड़ा जाना
शुकदेव जी कहें, हे परीक्षित
एक सुंदर और श्रेष्ठ पर्वत था
दस हजार योजन ऊँचा वो
क्षीरसागर में, त्रिकूट नाम का।
रत्न और धातुओं से भरा
रंग बिरंगी छटा थी उसकी
विविध जाती के वृक्ष, लताएं
सरोवर और झरने थे कई।
सिद्ध, चारण, गन्धर्व आदि
बने रहते उसकी कन्दराओं में
तलहटी पर जंगली जानवर
झुण्ड के झुण्ड रहते थे।
पर्वतराज त्रिकूट की तराई में
एक उद्यान था भगवान् वरुण का
दिव्य वृक्षों से सुशोभित
ऋतुमान उसका नाम था।
उद्यान में एक बड़ा सरोवर
भांति भांति के कमल खिले जिसमें
शोभायमान वो रहता था
तरह तरह के पुष्पवृक्षों से।
निवास करता था एक गजेन्द्र
घोर जंगल में, त्रिकूट पर्वत के
शक्तिशाली हाथिओं का सरदार वो
रहता था साथ में हथनियों के।
घूम रहा था उसी पर्वत पर
एक दिन हथनियों के साथ वो
उसके साथ में दौड़ रहे थे
पीछे उसके छोटे बच्चे जो।
हथनियां और बड़े हाथी भी
चल रहे थे उसको घेरे
मद के कारण उस हाथी के
नेत्र थे विह्वल हो रहे।
बहुत जोर की धूप थी इसलिए
व्याकुल हो गया बहुत वो
सरोवर की और चल पड़ा
जब प्यास सताने लगी तो।
अत्यंत निर्मल और मधुर था
अमृत समान जल उस सरोवर का
जी भर कर जल पिया था पहले
फिर जल में स्नान करने लगा।
भगवान की माया से मोहित हो
गजेन्द्र उन्मत्त हो रहा था
सिरपर मंडराती विपत्ति का
उसको अभी कुछ पता नहीं था।
हे परीक्षित, एक बलवान ग्राह ने
उसी समय प्रारब्ध की प्रेरणा से
गजेंद्र का था पैर पकड़ लिया
क्रोध में भरकर उस सरोवर में।
चेष्टा बहुत की छूटने की
पर छुड़ा न सका गजेंद्र वो
ये देख घबरा रहे थे
दुसरे हाथी और बच्चे जो।
बड़ी विवशता से चिंघाड़ने लगे
कुछ ने उसकी सहायता भी की
बाहर निकालने का प्रयत्न किया
असमर्थ रहे पर हाथी वो सभी।
अपनी अपनी पूरी शक्ति लगा
गजेंद्र और ग्राह भिड़े हुए आपस में
कभी गजेंद्र खींचे बाहर ग्राह को
कभी ग्राह खींच ले भीतर उसे।
लड़ते लड़ते इस प्रकार उन्हें
एक हजार वर्ष बीत गए
आश्चर्यचकित देवता भी थे
ये देख कि दोनों ही जीते रहे।
बहुत दिनों से बार बार ही
जल में खींचे जाने से
शिथिल पड़ गया शरीर गजेंद्र का
बल भी न रहा शरीर में उसके।
मन में उत्साह न रहा
शक्ति भी क्षीण हो गयी
इधर ग्राह तो जलचर ही था
उसकी शक्ति और बढ़ गयी।
बड़े उत्साह से बल लगाकर
गजेंद्र को वो खींचने लगा
देह्भिमानी गजेंद्र अपने को
छुड़ाने में सर्वथा असमर्थ हो गया।
अकस्मात प्राण संकट में पड़े
विचार किया छूटने के उपायों पर
सोच सोच कर फिर अंत में
पहुंचा वो इस निष्कर्ष पर।
' यह ग्राह विधाता की फाँसी है
इसमें फंसकर मैं आतुर हो रहा
साथी भी मुझे निकाल न सके
भगवान ही मैं लूँ आश्रय।
उनकी मैं शरण लेता हूँ
सम्पूर्ण विश्व के एकमात्र आश्रय वे
काल से भयभीत हो शरण आये जो
प्रभु उसे अवश्य बचा लेते।
उनके भय से भीत हो मृत्यु भी
अपना काम पूरा करता है
वही प्रभु सभी के आश्रय हैं
शरण उनकी ग्रहण करता मैं।