श्रीमद्भागवत -१४ ;कृष्ण का द्वारका गमन और परीक्षित का जन्म
श्रीमद्भागवत -१४ ;कृष्ण का द्वारका गमन और परीक्षित का जन्म
भीषम पितामह ने ज्ञान दिया जो
और कृष्ण ने जो उपदेश दिया
युधिष्ठर के मन को शांति मिल गयी
धर्म से फिर उन्होंने शासन किया।
भाई उनकी आज्ञा मानते
प्रजा वहां बहुत सुख पाए
तीन महीने रहे वहां पर
कृष्ण कहें अब द्वारका जाएं।
रथ पर जब सवार हुए कृष्ण
पांडव सह न पाएं विरह को
आंसुओं से आँखें भर आईं
दूर तक चले कृष्ण के साथ वो।
कृष्ण ने तब उनको विदा किया
सात्यकि, उद्धव उनके साथ में
रास्ते में नगर वासी सब
स्तुति और प्रणाम कर रहे।
द्वारका नगरी पहुँच गए वो
पाञ्चजन्य शंख बजाया
प्रभु का अपने दर्शन करने
सारा नगर बाहर था आया।
माताओं से मिलने गए पहले
फिर अपने महलों में आये
इतने दिनों के बाद दिखे कृष्ण
रानियां सब प्रसन्न हो जाएं।
शौनक जी पूछें सूत जी से फिर
परीक्षित के जन्म की कथा सुनाएं
ब्रह्मास्त्र के प्रकोप से वो
कैसे बचे थे ये बताएं।
सूत जी बोले, उतरा के गर्भ में
शिशु परीक्षित दुःख थें पाएं
अश्व्थामा के ब्रह्मास्त्र का
तेज उनको था जलाये।
तभी देखा आँखों के सामने
ज्योतिर्मय एक पुरुष है खड़ा
देखने में अंगूठे भर का
स्वरुप उसका निर्मल है बड़ा।
सुंदर श्याम शरीर है उसका
पीताम्बर धारण किये है
चार भुजाएं, स्वर्ण कुंडल हैं
हाथ में जलती गदा लिए है।
शिशु के चारों तरफ घूम रहा
ब्रह्मास्त्र को शांत वो करे
शिशु सोचे कि ये कौन है
प्रभु तब अंतर्ध्यान हो गए।
परीक्षित जी का जन्म हुआ
जन्म से ही तेजस्वी थे वो
युधिष्ठर बहुत प्रसन्न हुए
ब्राह्मणों को थें धन बाटें वो।
कहें, विष्णु रक्षा की इसकी
इसका विष्णुरात नाम हो
ब्राह्मण कहें, ये करे धर्म की रक्षा
कलयुग का भी दमन करे वो।
जिस पुरुष का गर्भ में दर्शन किया
लोगों में देखे, कौन सा है वो
परीक्षा सभी की लेता रहता
परीक्षित नाम से प्रसिद्ध हुआ वो।