श्रीमद्भागवत -१३७ ;हिरण्यकशिपु के अत्याचार और प्रह्लाद के गुणों का वर्णन
श्रीमद्भागवत -१३७ ;हिरण्यकशिपु के अत्याचार और प्रह्लाद के गुणों का वर्णन
नारद जी कहें, हे युद्धिष्ठर
दुर्लभ वर मांगे हिरण्यकशिपु ने
ब्रह्मा जी ने प्रसन्न हो तपस्या से
ये सब वर उसे दे दिए।
ब्रह्मा जी कहें, हे बेटा
दे रहा मैं ये दुर्लभ वर तुम्हे
नारद जी कहें, झूठे नहीं होते
वरदान दिए हुए ब्रह्मा जी के।
वरदान मिल जाने के बाद फिर
हिरण्यकशिपु ने उनकी पूजा की
तत्पश्चात वर देकर उसे
चले गया वहां से ब्रह्मा जी।
ब्रह्मा जी के वर से हिरण्यकशिपु का
शरीर हृष्ट पुष्ट हो गया
भाई की मृत्यु को स्मरण कर
भगवान से वो द्वेष करने लगा।
सभी दिशाएं, तीनों लोक और
राजा जो सभी प्राणियों के
देवता, असुर, गन्धर्व, सिद्ध, मनु
सबको वश में कर लिया उसने।
लोकपालों के स्थान और शक्ति
छीन लिए, रहने लगा वो स्वर्ग में
विश्वकर्मा ने था जो बनाया
निवास स्थान था इंद्र के भवन में।
शासन बहुत कठोर था उसका
भयभीत होकर देव दानव तब
उसके चरणों की वंदना करते
उसकी थे सेवा करते सब।
छीन लेता आहुति यज्ञों की
युद्धिष्ठर, वो इतना तेजस्वी था
पृथ्वी के सातों द्वीपों पर
उसका एक छात्र राज्य था।
अंतरिक्ष से उसे मिल जाता
चाहता था वो जो कुछ भी
वृक्ष सदा रहें फूलते फलते
धरती अन्न दे बिना बोये ही।
सब लोकपालों के गुणों को
वो अकेला ही धारण करता
समुन्द्र रत्नादि पहुंचाते उसे
करता उपभोग वो प्रिय विषयों का।
परन्तु तृप्त न हो सका वो
क्योंकि दास वो इन्द्रियों का
इस रूप में भी भगवान का पार्षद जिसे
सनकादियों ने शाप दिया था।
घमंड में चूर होकर और
ऐश्वर्य मद में मतवाला हो
शास्त्रों की मर्यादा का
कर रहा उलंघन था वो।
देखते देखते बहुत सा समय
बीत गया उसके जीवन का
शासन से दुखी हो लोकपालों ने
मन ही मन प्रभु को स्मरण किया।
उन सब ने शरण ली भगवान की
आराधना करने लगे वो उनकी
तब एक दिन उन सबको वहां
एक आकाशवाणी सुनाई दी।
'' श्रेष्ठ देवताओ, डरो मत
तुम सब लोगों का कल्याण हो
दुष्ट दैत्य को मिटाऊंगा मैं
कुछ समय तक प्रतीक्षा करो।
अपने वैरहीन, महात्मा पुत्र
प्रह्लाद से द्रोह करेगा जब वह
उसका अनिष्ट करना चाहेगा
मार डालूँगा तो उसे मैं ''|
नारद जी कहें, सभी देवता
प्रभु को प्रणाम कर लौट आये थे
हे युधिष्ठर, बड़े ही विलक्षण
चार पुत्र थे हिरण्यकशिपु के।
प्रह्लाद यूं तो सबसे छोटे थे
परन्तु सबसे बड़े थे गुणों में
संतसेवी, ब्राह्मणभक्त
सत्यप्रतिज्ञ और जितेन्द्रिय थे।
समस्त प्रनिओं के हितेषी वो
इन्द्रियां, प्राण, मन उनके वश में
जन्म से असुर होने पर भी
आसुरी सम्पति नहीं थी कोई उनमें।
प्रह्लाद के श्रेष्ठ गुणों की
हे युधिष्ठर, कोई सीमा नहीं
उनकी महिमा का वर्णन करते
सदा सिद्ध महात्मा लोग सभी।
बचपन से ही खेल कूद छोड़
तन्मय होते हरि के ध्यान में
जगत की कुछ सुध बुध न रहती
प्रभु भजन करें मन ही मन में।
प्रभु को सामने पाकर कभी
हंसने लगते बड़े आनंद से
कभी सोचकर, भगवान छोड़ गए
जोर जोर से रोने लगते।
परम भक्त, परम भाग्यवान थे
महात्मा उच्चकोटि के थे वो
परन्तु अपराधी बतलाता
हिरण्यकशिपु ऐसे साधु पुत्र को।
उसका अनिष्ट करने की चेष्टा
और मारना चाहता था उसे
युधीस्ठर पूछें, हे नारद जी
हिरण्यकशिपु द्रोह क्यों करे था उनसे।
यह जान आश्चर्य हो रहा
पिता मारना चाहे पुत्र को
ऐसा क्या किया था उन्होंने
कृपाकर बतलाइये ये हमें।
