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Ajay Singla

Classics

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Ajay Singla

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श्रीमद्भागवत -१३०; चित्रकेतु का वैराग्य तथा संकर्षण देव के दर्शन

श्रीमद्भागवत -१३०; चित्रकेतु का वैराग्य तथा संकर्षण देव के दर्शन

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शुकदेव जी कहें, हे परीक्षित

फिर देवर्षि नारद ने

मृत राजकुमार की जीवात्मा को

प्रत्यक्ष बुलाया सम्बन्धिओं के सामने।


नारद जी ने कहा, जीवात्मा

तुम्हारे सुहृद और सम्बन्धी ये

तुम्हारे जाने के वियोग में

अत्यंत शोकाकुल हो रहे।


इसलिए आ जाओ अपने शरीर में

शेष आयु अपनी व्यतीत करो

सगे सम्बन्धिओं के साथ ही

भोगो पिता के दिए भोगों को।


जीवात्मा कहे, हे देवर्षि

कर्मों के अनुसार मैं अपने

देवता, मनुष्य, पशु और पक्षी

भटका न जाने कितनी योनिओं में।


मेरे माता पिता हुए ये

उनमें से किस जन्म में

विभिन्न जन्मों में होते रहते हैं

सभी सम्बन्धी एक दुसरे के।


भाई - बंधू, नाती - गोती

शत्रु - मित्र, उदासीन -द्वेषी

भिन्न भिन्न योनियों में उत्पान हो

एक दुसरे से ममता भी होती।


सम्बन्ध होता रहता है

जबतक जिसका जिस वस्तु से

तभी तक ममता भी रहती

है उसकी उस वस्तु में।


जीव नित्य और अहंकाररहित है

जब तक शरीर में रहता है वो

है वो अपना समझता

तभी तक उस शरीर को।


यह जीव नित्य, अविनाशी

जन्मादि रहित, स्वयंप्रकाश है

इसका न कोई अपना, न पराया

न कोई प्रिय न कोई अप्रिय है।


वास्तव में अद्वित्य है

जीवात्मा कहे, जीव ये

और ये सब कहकर जीवात्मा

चला गया था वहां से।


यह बात सुन अत्यंत विस्मित हुए

उसके सगे सम्बन्धी जो थे

उसके मरने का शोक जाता रहा

स्नेह बंधन कट गए उनके।


इसके बाद सम्बन्धिओं ने

संस्कार क्रियाएं पूरी कीं

जिन रानियों ने विष दिया था

बालहत्या से वो श्रीहीन हो गयीं।


अंगिरा ऋषि के उपदेश को याद कर

चली गयीं यमुना तट और वहां

ब्राह्मणों के आदेशनुसार ही

प्रायश्चित किया बालहत्या का।


चित्रकेतु बाहर निकल गए

घर गृहस्थी के अँधेरे कुएं से

तर्पण आदि क्रियाएं कीं

स्नान कर फिर यमुना जी में।


नारद जी और अंगिरा जी के

चरणों में दंडवत किया उन्होंने

उनको था ये उपदेश दिया फिर

प्रसन्न होकर श्री नारद जी ने।


ओंकार स्वरुप भगवान आप हैं

चित, बुद्धि, मन और अहंकार के

अधिष्ठाता हैं वासुदेव, प्रद्युमन

अनिरुद्ध और संकर्षण के रूप में।


नमस्कारपूर्वक ध्यान करता हूँ

आपके इस चतुर्व्यह रूप का

नारद, अंगिरा ब्रह्मलोक चले गए

उपदेश देकर इस विद्या का।


सात दिन तक केवल जल पीकर

उस विद्या का अनुष्ठान किया

उससे राजा को विद्याधरों का

अखंड अधिपत्य प्राप्त हुआ।


मन भी उनका शुद्ध हो गया

शेष जी के चरणों के समीप हुए

भगवान शेष का दर्शन करके

सारे पाप थे नष्ट हो गए।


देखें सिद्धेश्वरों के मध्य में

विराजमान हैं भगवान शेष जी

आंसू छलक आये नेत्रों में

शेष भगवान की तब स्तुति की।


दर्शन मात्र से ही आपके

मन का मैल सारा धुल गया

स्तुति से भगवन प्रसन्न हुए

चित्रकेतु से उन्होंने कहा।


नारद और अंगिरा के उपदेश से

राजा, तुम हो सिद्ध हो चुके

भगवान ने फिर चित्रकेतु को

समझाया और ज्ञान दिया उसे।


मेरे स्वरुप को भूले जीव जब

अलग मान बैठे अपने को

इसी से संसार चक्र में पडकर

जन्म मृत्यु प्राप्त हो उसको।


ज्ञान विज्ञान का मूल स्रोत है

यह मनुष्य की योनि है जो

परमात्मा को अगर नहीं जानता

इस योनि को पाकर भी वो।


किसी भी योनि में फिर उसे

शांति नहीं मिल सकती है

ब्रह्म, आत्मा की एकता का अनुभव करे

स्वार्थ, परमार्थ केवल यही है।


शुकदेव जी कहें, हे राजन

समझा बुझाकर चित्रकेतु को

उसके सामने ही चले गए प्रभु

अपने लोक को, अंतर्धान हो।


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