श्रीमद्भागवत -१०४; गंगा जी का विवरण और भगवान शंकरकृत संकर्षणदेव की स्तुति
श्रीमद्भागवत -१०४; गंगा जी का विवरण और भगवान शंकरकृत संकर्षणदेव की स्तुति
शुकदेव जी कहें हे राजन
राजा बलि की यज्ञशाला में
विष्णु ने पैर फैलाया था जब
त्रिलोकी को नापने के लिए।
उनके बाएं पैर के नख से
ब्रह्माण्ड का भाग फट गया ऊपर का
उस छिद्र से ब्रह्माण्ड के बाहर को
निकली थी फिर जल की धारा।
उस चरण कमल को धोने से
केसर थी जो उसमें लगी हुई
उस केसर के जल में मिलने से
वो जल धारा लाल हो गयी।
स्पर्श होने से इस निर्मल धारा का
संसार के सारे पाप मिट जाते
किन्तु ये सर्वथा निर्मल रहती है
पहले इसे भगवत्पदी थे कहते।
हजारों युगों के बीतने पर फिर
होकर स्वर्ग के शिरोभाग से
ध्रुवलोक में ये जब उत्तरी
विष्णु पद भी कहते हैं जिसे।
कुलदेवता का चरणोदक समझकर
ध्रुव जी वहां पर बड़े आदर से
इस जल को लेकर श्रद्धा से
अपने सिर पर हैं चढ़ाते।
उनके पश्चात सप्तऋषिगण
जो इसका प्रभाव हैं जानते
आदरपूर्वक अपने जटाजूट पर
इसको वो हैं धारण करते।
वहां से आकाश में होकर गंगा जी
चन्द्रमण्डल को आप्लावित करती
मेरुपर्वत के शिखर पर
ब्रह्मपुरी में आकर गिरती।
सीता, अलकनंदा, चक्षु और भद्रा
विभक्त हो चार धाराओं में ये
चारों दिशाओं में बहती हुई
अंत में गिर जाती समुन्द्र में।
सीता ब्रह्मपुरी से गिरकर
होकर केसराचलों के शिखरों से
गंधमादन से, भद्राशव वर्ष होकर फिर
गिर जाती खारे समुन्द्र में।
चक्षु माल्यवान से होकर
बहती हुई केतुमाल वर्ष में
बेरोकटोक पश्चिम की और फिर
गिर जाती क्षारसमुंद्र में।
भद्रा मेरु पर्वत के शिखर से
उतर की और गिरती है
शृंगवान से, उत्तरकुरु देश से होकर
समुन्द्र में फिर मिल जाती है।
अलकनंदा ब्रह्मपुरी से दक्षिण को
गिरकर हेमकूट पर पहुंचे
चीरती हिमालय के शिखरों को
पहुँचती है भारतवर्ष में।
दक्षिण की और फिर बहती
समुन्द्र में मिल जाती है वहां
इसमें सनान करने से पुरुषों को
यज्ञों से भी फल मिलता ज्यादा।
इसके इलावा प्रत्येक वर्ष में
मेरु अदि पर्वतों से निकलें
सैकड़ों और भी नद नदियां हैं
उन वर्षों में वो बहा करें।
कर्म भूमि है भारत वर्ष ही
इन सब नौ वर्षों में
शेष आठ वर्ष जो हैं
स्थान हैं स्वर्गवासी पुरुषों के।
स्वर्गभोग से बचे हुए
पुण्यों को भोगने के स्थान ये
स्वर्ग भी कहे जाते हैं
इसी लिए ये भूलोक के।
मानवी गणना के अनुसार
वहां के देवतुल्य मनुष्यों की
आयु बहुत बड़ी है होती
करीब दस हजार वर्ष की।
बल भी उनमें बहुत है होता
सुदृढ़ शरीर, शक्ति, यौवन भी
उसके कारण बहुत समय तक
विषय भोगते रहते हैं सभी।
अंत में भोग जब समाप्त हों और
आयु का एक वर्ष रह जाता
उनकी स्त्रियां तब गर्भ धारण करें
त्रेता युग समान समय बना रहता।
आश्रम, भवन, वन और उपवन
पर्वत, वृक्ष सभी मिल जाएं वहां
निर्मल जल से भरे जलाशय
राजहंस, सारस, चकवे रहें वहां।
इन जलाशयों में देवेश्वर गन
देवांगनाओं संग क्रीड़ा करते
इन नवों वर्षों में नारायण अपनी
मूर्तिओं में विराजमान हैं रहते।
भगवान शंकर ही एक पुरुष हैं
वर्ष में इलावृत नाम के
कोई पुरुष प्रवेश न कर सके
पार्वती जी के शाप से।
क्योंकि वहां जो भी जाता है
पुरुष हो जाये स्त्री रूप वो
पार्वती और दासियों सहित
शंकर जी पूजें परम पुरुष को।
वासुदेव, प्रद्युमन, अनिरुद्ध, संकर्षण
परम पुरुष की चार मूर्तियां ये
संकर्षण देव की जो चौथी मूर्ती
उसका शंकर जी चिंतन करें।
शंकर कहें आप परमपुरुष हैं
आपको मेरा नमस्कार है
चरणकमल आश्रय दें भक्तों को
सम्पूर्ण ऐश्वर्यों के आश्रय हैं।
भक्तों के सामने ही अपना
स्वरुप आप प्रकट करते हैं
तथा उन्हें संसार बंधन से
आप ही मुक्त करते हैं।
किन्तु अभक्तों को उस बंधन में
आप डालते ही रहते हैं
आप की माया अनंत है
आप को सर्वेश्वर कहते हैं।
जगत की उत्पत्ति, स्थिति और लय का
वेदमंत्र आपको कारण बताते
परन्तु स्वयं इनसे रहित हैं
इसलिए आपको अनंत हैं कहते।
आपके सहस्त्रों मस्तकों पर
यह भूमण्डल रखा हुआ है
सरसों के दाने समान है ये बस
आपको पता भी नहीं लगता है।
जिनसे उत्पन्न हुआ मैं
विज्ञान के आश्रय ब्रह्मा जी जो
आपसे ही उत्पन्न हुए, आपके
प्रथम गुणमय स्वरुप हैं वो।
वशीभूत हो आपकी क्रियाशक्ति से
और आपकी ही कृपा से
वो ब्रह्मा जी ही फिर
इस जगत की रचना करते।
सत्वादि गुणों की सृष्टि से
मोहित होकर फिर जीव ये
जान भी लेता है माया को
तो भी मुक्त न हो सके उससे।
ये माया आपकी रची हुई
बांधने वाली कर्म बंधन में
इससे मुक्त होने का उपाय
मालूम न हो सुगमता से उसे।
इस जगत की उत्पति और प्रलय
ये आप के ही रूप हैं
ऐसे अविनाशी आप को
बार बार नमस्कार है।