श्रीमद्भागवत -१०३; भुवनकोश का वर्णन
श्रीमद्भागवत -१०३; भुवनकोश का वर्णन


राजा परीक्षित पूछें, हे मुनिवर
सूर्य का प्रकाश जहाँ एक
और तारागण, चंद्रमा दिखते
विस्तार भूमण्डल का वहां तक।
आप ने ये बतलाया और कि
प्रियव्रत के रथ की लीकों से
भूमण्डल में सात द्वीप बने
सात समुन्द्र बन गए थे।
अब मैं आप से जानना चाहूँ
उन सब का परिमाण और लक्षण
कृपा कीजिये मुझपर हे गुरुवर
कीजिये विस्तार से इन सब का वर्णन।
शुकदेव जी बोले, हे राजन
भगवान हरि की माया के गुणों का
विस्तार इतना कि मन या वाणी से
हो न सके अंत है इसका।
इसलिए वर्णन करेंगे
हम मुख्य मुख्य बातों की
इस भूमण्डल की विशेषता
इसके परिमाण और लक्षणों की।
जम्बूद्वीप जिसमें हम रहते
सात द्वीपों में सबसे भीतर है
कमल पत्र समान गोलाकार है
परिमाण इसका एक लाख योजन है।
इसमें नौ नौ हजार योजन
विस्तार वाले नौ वर्ष हैं
आठ पर्वतों से बंटे हुए वो
सीमाओं का इनक ये विभाग करते हैं।
बीचों बीच एक दसवां वर्ष है
इलावृत नाम है जिसका
मध्य में उसके मेरु पर्वत है
जो कि राजा है कुलपर्वतों का।
मानो भूमण्डलरूप कमल की
कर्णिका ही है यह पर्वत
सारा का सारा सुवर्णमय
ये है ऊपर से नीचे तक।
एक लाख योजन ऊँचा ये
चौरासी हजार धरती के ऊपर
सोलह हजार धरती के भीतर है
बत्तीस हजार योजन विस्तार शिखर पर।
इलावृत वर्ष के उतर में क्रमशः
नील, श्वेत, श्रृंगवान पर्वत हैं
जो रम्यक, हिरण्मय और कुरु नाम के
वर्षों की सीमा बांधते हैं।
ये पूर्व से पश्चिम तक
खारे समुन्द्र तक फैले हुए हैं
प्रत्येक की चौड़ाई दो हजार योजन
उँचाई भी सभी की समान है।
लम्बाई में पहले की अपेक्षा
पिछला करीब दशमांश कम है
इसी प्रकार इलावृत के दक्षिण में
निषध, हेमकूट और हिमालय पर्वत हैं।
नीलादि पर्वत के समान ही
पूर्व से पश्चिम फैले हुए ये
हरिवर्ष, किम्पुरुष, भारतवर्ष का विभाग करें
दस दस हजार योजन हैं ऊँचे।
इलावृत के पूर्व, पश्चिम में
गन्धमादन और माल्यवान पर्वत हैं
उत्तर में ये नीलपर्वत तक
दक्षिण में विषध पर्वत तक फैले हैं।
इनकी चौड़ाई दो दो हजार योजन है
ये सीमा निश्चित करते हैं
भद्राशव और केतुमाल के
नाम वाले जो दो वर्ष हैं।
मंदर, मेरुमंदर, सुपाशर्व और कुमुद
ये चार और पर्वत हैं
दस हजार योजन ऊँचे और चौड़े
आधार के पास मंदराचल के स्थित हैं।
ध्वजा समान इन चारों पर पेड़ हैं
आम, जामुन, कदम्ब और बड़ के
प्रत्येक ग्यारह हजार योजन ऊँचा
सौ सौ योजन मोटाई में।
इन पर्वतों पर चार सरोवर
दूध, मधु, ईख रस, मीठे जल के
यक्ष, किन्नरादि जो उपदेव हैं
इन सब रसों का वो सेवन करें।
नंदन, चैत्ररथ, वैभ्राजक, सर्वतोभद्र
ये चार उपवन भी उनपर
सुर सुन्दरियों के साथ विहार करें
वहां प्रधान प्रधान देवगन।
गन्धर्वादि उपदेवगण तब
उनकी महिमा का बखान करें
ग्यारह सौ योजन ऊँचा आम्र वृक्ष
एक
पड़ा वो मन्दराचल की गोद में।
गिरि शिखर के समान बड़े बड़े
इस वृक्ष को फल लगते हैं
और अमृत के समान स्वादिष्ट
नीचे वो गिरते रहते हैं।
ये फल जब फटते हैं तो
बड़ा सुगन्धित रस है बहता
बड़ा मीठा और लाल लाल ये
अरुणोदा नदी में परिणत हो जाता।
यह नदी मंदराचल से गिरकर
इलावृत के पूर्व को सींचे
पार्वती की अनुचरी यक्ष पत्नियां
इस जल का ही सेवन करें।
इससे उनके अंगों से जो
सुगंध निकलती है जब उसे
वायु चारों और फैला दे
सुगंध भर जाती सारे देश में।
इसी प्रकार जामुन के वृक्ष से
हाथी के समान बड़े फल गिरते
ऊँचे से गिरने के कारण
गिरते ही हैं वो फट जाते।
उनके रस से प्रकट होती है
जम्बू नामक नदी, गिरती जो
मेरुमंदर पर्वत के शिखरों से
सींचती इलावृत के दक्षिण भाग को।
इस नदी के किनारों की मिट्टी
उन फलों के रस में भीगकर
जम्बूनद नाम का सोना बनती
वायु और सूर्य से सूखकर।
देवता और गन्धर्वादि सब
लगाते मुकुट, करधनी आदि में
स्त्रिओं सहित धारण करते हैं
इस सोने को आभूषणों के रूप में।
शुपाशर्व पर्वत पर जो
एक विशाल कदम्ब वृक्ष है
उसके पांच कोटरों से निकलती
पांच मधु की धाराएं हैं।
शुपाशर्व के शिखर से गिरकर
इलावृत में धाराएं ये
पश्चिम भाग को ये उसके
अपनी सुगंध से सुवासित करती हैं।
लोग जो मधुपान करें इसका
उनके मुख से निकले वायु जो
सौ सौ योजन तक फैला दे
चारों और इस सुगंध को।
इसी प्रकार कुमुद पर्वत पर
शतवल्श नाम का वैट वृक्ष है
उसकी जटाओं के नीचे से
नद निकलते हैं अनेक वहां।
इच्छा अनुसार भोग देते वो
दूध, दही, मधु, घृत, गुड़, अन्न
और भी कई पदार्थ मिलें
जैसे वस्त्र, आभूषण और आसन।
ये सब कुमुद के शिखर से गिरकर
उत्तरी भाग को सींचें इलावृत्त के
इनके दिए पदार्थों का उपभोग कर
शारीरिक कष्ट कोई न सताते।
बुढ़ापा, रोग, मृत्यु और झुर्रियां
थकान होना, बालों का पकना
कांतिहीन होना शरीर का
या शारीरिक अंगों का टूटना।
इन कष्टों से बचकर लोग वहां
जीवन प्रयन्त पूरा सुख पाते
शुकदेव जी कहें, हे राजन
हृष्ट पुष्ट वो सदा हैं रहते।
मेरु पर्वत के मूलदेश में
चारों और बीस पर्वत हैं
इसके अलावा चारों दिशा में
दो दो और पर्वत हैं।
इन आठ पहाड़ों से घिरा हुआ
जगमगाता सुंदर मेरु है
मेरु के बीचों बीच ब्रह्मा की
कहते हैं एक सुवर्णमयी पूरी है।
आकार में ये पूरी समचौरस है
और करोड़ योजन विस्तार की
उसके नीचे दिशा उपदिशाओं में
आठ पूरियां हैं लोकपालों की।