शिव शिवा का साया
शिव शिवा का साया
मैं तुम्हारे पथ की रज सी तुम चाँद मेरे गगन के,
पग-पग पसीजती जाऊँ तुम्हारे पदचिन्ह की डगर पे।
संसार रथ के सोपान की तुम नींव हो तो धुरी मैं,
तुम दर्द का मेरे कंधा, तुम्हारे अवसाद की मैं छाया।
सपनों के तुम बीज बनो मैं लहलहाती फसलें,
दोनों मिलकर बगिया की रखवाली करते चल दे।
चाहूँ ना मैं चाँदी सोना, ना महलों की ख़्वाहिश,
साथी बनकर साथ चलूँ चुटकी सम्मान की प्यासी।
बूँद-बूँद मैं सिमटी हूँ चंचल नदियाँ की धार सी,
समर्पित हूँ समुन्दर बनो पनाह दो अपनी प्रीत की।
पति ना तुम बड़े समर्थ ना पत्नी कमज़ोर सी काया,
तुम मेरे सरताज मांग के मैं समूचा तुम्हारा सरमाया।
विश्व धरा पर मैथुन क्रिया के दो पहलू कहलाते,
एक दूसरे के पर्याय है हम शिव शिवा का साया।
