'शिव' सा प्रेम
'शिव' सा प्रेम
कितना विचित्र है तुमसे प्रेम करना,
तुम्हारे अस्तित्व को स्वयं के अस्तित्व से मिला देना,
यह प्रेम याचना नही करता कि बदले में,
मुझे प्राप्त हो तुम्हारा अथाह प्रेम।
यह भावना तो बस तुम्हे अनंतकाल तक प्रेम करते रहने की है,
यहाँ कोई संभावना नही,
कोई आशा नही,
कोई अपेक्षा नही कि तुम इस प्रेम को समझो,
इसे देखो या फिर इसका अनुभव ले सको।
यह मात्र मेरा प्रेम ही है,
जो असंभावनाओं से घिरे होने के बाद भी,
तुमसे और प्रेम करता है,
मेरा प्रेम और भी निःस्वार्थ होते चला जाता है।
यह बस एक समर्पण है,
एक निःस्वार्थ भावना है बिल्कुल वैसे ही,
जैसे मैं 'शिव' के लिए रखती हूँ अपने हृदय में।
अन्याय तुमने भी कभी किया था,
कभी शिव भी कर देते हैं भोलेपन में,
तो क्या कर देती हूँ मैं त्याग शिव का?
नही, मैं तब भी शिव को पूजती हूँ,
तब भी शिव से प्रेम करती हूँ,
और तब भी शिव के पास बैठकर ही रोती हूँ।
बस मेरा यही और इतना ही प्रेम है,
यही भावना और यही उद्देश्य है,
तुम्हारे लिए।