" शिक़वा - ए - काफ़िर "
" शिक़वा - ए - काफ़िर "


खुदा से इश्क़ तो किया,
मग़र यह चाटुकारी क्यूँ।
वह क्या जी हुज़ूरी मांगता है,
यह नक़्ली वफ़ादारी क्यूँ।
किया सजदों में वक़्त ज़ाया,
क्या मिला, कौन नज़र आया।
वही दीवारें थी, वही बाम-ओ-दर,
रूह कफ़स में है, मगर झुका है सर।
इफ़्फ़त-ए-क़ल्ब नहीं है,
बस नाम के खुदापरस्त हो तुम।
इबादत दिल- बस्तगी है तुम्हारे लिए,
असीर-ए-हवस हो तुम।
एक तरफ़ ख़ुदाया खैर कहते हो,
और दूसरी जानिब भाई को ग़ैर कहते हो।
इन ढकोसलों को छोड़ आया हूँ,
और खुदा से नाता तोड़ आया हूँ।
जाओ कह लो मुझे क़ाफ़िर,
अगर यही आरज़ू है तुम्हारी।
मग़र याद रखना मैं आब हूँ बेरंग सा,
और रूह बदरूह है तुम्हारी।