पागल
पागल


किससे बात करूँ,
कौन सुनेगा ?
जा - जा दिमाग़ मत खा,
हर कोई यही कहेगा ।
रिंद-ए-मस्त हो गया हूँ,
मीज़ान बिगड़ा हुआ है मेरा ।
पेशानी पर गुनाहगार लिखा है,
ईमान बिगड़ा हुआ है मेरा ।
महज़ एक दोस्त की चाहत है,
मगर कौन समझेगा ?
जा - जा पगला कहीं का,
हर कोई यही कहेगा ।
क़स्र-ए-तसव्वुर में बस दो लोग रहते हैं,
मैं और मेरी परछाई ।
न अमलाक, न शक़्ल, न अक़्ल, न शुजाअत,
कुछ भी तो नहीं है मेरे पास ।
अगर मैं ऐसा ही पैदा हुआ हूँ,
तो कुसूर क्या है मेरा ?
निल बटे सन्नाटा है, ज़िन्दगी,
फूल का चोगा बस ख़्वाब है मेरे लिए ।
बस एक बूढ़ी अम्मा है,
जिसका ज़िगर बेताब है मेरे लिए ।
कोई तो होगा ?
जो मेरे पागलपन को समझेगा ।
कोई तो इस दिल-ए-ना-तवां,
को पढ़ेगा ।
कोई तो इस बेकार का दोस्त बनेगा ।
इन मसरूफ़ लोगों में,
क्या है कोई फ़ुर्सत वाला ।
क्या अब मिलेगा मुझको,
दोस्त कोई मोहब्बत वाला ।
नज़रन्दाज़ी के तरकश का तीर खाया है मैंने,
और ' पाग़ल ' होने का दाग़ पाया है मैंने ।