शगूफ़े सी ज़िंदगी
शगूफ़े सी ज़िंदगी
कश मारकर देख लिया,
घूँट चख कर देख लिया
अनर्गल ज़िंदगी के फ़ितूर से
लड़कर देख लिया
तूरी, कड़वी, तीखी सी लज़्जत भरी
ज़िंदगी से चुराकर
एक लम्हें को संजोने की ख़ातिर
रात का एक रेशमी टुकड़ा
चुम लेता हूँ
जलते चाँद के शोले जला जाते है
ये बेवजह चाँद किसकी याद में
जलता रहता है
शायद अमावस सर पर खड़ी है
दुआएँ कहाँ जाकर माँगू
मंदिर के दिए का सीना
ज़ार ज़ार होते जलता है
दहलीज़ पर पड़े
असंख्य भूखे पेट की पुकार सुनते
अपनो के आगे आँखें क्या कोरी करें
मुँह फेरे आईना भी थरथर्राता है
शगूफ़े सी बनकर रह गई है ज़िंदगी
हर कोई मेरी हालत पर हंस कर
चल देता है
लकीरों को शाबाशी दे दूँ
बंदे क्या किस्मत है पाई
सौ चिराग मेरे आसपास
अंधेरों के झिलमिलाते है