शब्द
शब्द
शब्द सारे खो रहे, भाव सारे सो रहे
अर्थ बिन ये लगती जिंदगी
मन व्यथित से है हो रहे।
यूँही एकांत में बैठकर जब सोचा कभी,
लगा जिंदगी बेमकसद बन कर है रह गयी,
नही कोई अपना दिखा, न ही कोई रिश्ते बने,
नही कोई ऐसा मिला जिससे हम कह दे सभी।
शब्द की बातें न समझे,भाव को न जी सकें,
खुश रहे या खुश दिखे ये प्रश्न मन में उठे,
एक अरसा हो गया है दिल को खुश हुए,
पीर घनेरी मन की बोली अब हम किससे कहें।
दोष किसको दूँ या खुद को दोषी मान लूँ,
प्रारब्ध ने जो किया मौन मैं स्वीकार कर लूँ,
छीन गयी है आरजू कल्पना से भी डर लगा,
कल्पना को त्याग कर बोल दो कैसे जीऊँ।
शब्द सारे सो रहे हैं, भाव सारे खो रहे हैं
अर्थ बिन लगती ये जिंदगी
मन व्यथित सदा हो रहे है।