सड़कें भी बोलती हैं......
सड़कें भी बोलती हैं......
"मैं सड़क हूँ
रहती हूँ एक ही जगह
कभी निःस्तब्ध, मौन
कभी कराहती हुई
कभी चीखती हुई
एक अजीब से अहसास के साथ
टूटी फूटी सी,
कहीं सीधी सादी,
कहीं टेढ़ी मेढ़ी
कभी न दिखने वाला छोर
अनंत दूर तक फैली हुई
मीलों दूरियों को जोड़ती हुई
गाँव गाँव शहर शहर
रोज ढोती हूँ
लाखों करोड़ों लोगों का बोझ
गुजरती हैं मुझे चीरती हुई
लाखों करोड़ों गाड़ियाँ
रोज वक़्त बेवक्त
मेरी लाचारी, मेरे दुःख दर्द से बेखबर
इधर उधर कचरे का ढेर,
बाढ़ का जल प्लावन
दोनों किनारे बेघर लोग
बच्चों का क्रंदन
बिखरी हुई जिंदगियां,
असहनीय गन्दगी
फिर भी मैं निभाती
अपना कर्तव्य
सतत, अथक और अविकल, अटल”।
सोचने पर मजबूर हुआ
ख़ुद पर अफ़सोस हुआ।
कभी सोचा न था कि
सड़क जो है
इतना दर्द सहती है
बाढ़ हो, भूकंप हो
सब कुछ मूक होकर सहती है
टूटती है, बिखरती है
पर सदा कर्तव्य रत
सतत, अथक और अविकल, अटल
और हम इंसान?
जो सड़क
एक गाँव को दूजे गाँव से,
एक शहर को दूजे शहर से
गाँव को शहर से
जोड़ती हैं
हम उस टूटी बिखरी सड़क को
वक़्त पर जोड़ भी नहीं सकते?
जिस सड़क ने हमें उसे रोंदने का
हक़ दिया
हमने उसका वह त्याग
युहीं बिसरा दिया।
ज़िन्दगी भी तो
एक सड़क की तरह है
जो रिश्तों से बनती है
भावनाओं से जुड़ती है
चलती है, दौड़ती है
रूकती है, फिर चलती है
टूटती है, बिखरती है
क्यूँ सड़कें टूट जाती हैं?
क्यूँ रिश्ते बिखर जाते हैं?
अगर युहीं सड़कें टूटती रही
फिर न जुड़ने के लिए
तो इंसान कैसे जुड़ेंगे?
अगर युहीं रिश्ते बिखरते रहे,
अगर रिश्तों को हम
युहीं तोड़ते रहे
न जोड़ने के लिए
तो अहसास कैसे जुड़ेंगे?
इंसान किस संग जुड़ेंगे?
और जब होगा
सड़क टूटने का अहसास
अहसास बिखरने का अहसास
एक अकेले पन का अहसास
टूटी बिखरी सड़क और
टूटी बिखरी ज़िन्दगी
पर तब तक
बहुत देर हो चुकी होगी……
और रह जायेगा
अगले पथिक के लिए
एक प्रश्न चिन्ह “?”…….