सभ्य
सभ्य


मन में भाव हो न हो
हाथ सलामी के लिए उठ जाता है
और होंठ फैल जाते हैं
ये अभ्यास है सतत
इसे व्यवहारिकता कहते हैं
कोई दुखी हो या सुखी
ये पूछना दुनियावी रस्म
कैसे हो, क्या हाल चाल हैं
कोई कुछ करते दिख रहा हो
फिर भी पूछना पड़ता है
क्या कर रहे हो
सभ्य आदमी के यही लक्षण है
जिसे सब बुरा कहें उसे तुम भी कहो
जिसे सब अच्छा कहें उसे तुम भी अच्छा कहो
भले ही तुम उसे जानते न हो
और कभी मिले भी न हो
ये शरीफ, सभ्य, सामाजिक व्यक्ति की पहचान है
सब ऊपर ही ऊपर
अन्दर खाली श्मशान है।