सौरभ
सौरभ
शायद याद हो तुम्हें
इस रोज की तरह
उस रोज भी
शाम बैठी थी दिन के किनारे पर
तुम्हारी उंगलियों में
अपनी उंगलिया उलझाते हुए
मैंने कहा था-
"कभी कभी मुझमें से
तुम्हारी खुशबू आती है।"
शायद याद हो तुम्हें
तुम मुस्कुराये थे
और हमारी सांसे उलझी थीं
तुम्हारी साँसों से पिघल कर "सौरभ"
मेरे जिस्म में उतर गया था
शायद याद हो तुम्हें
वो सुरमई शाम
कल ही वो दुष्ट हवा मेरे जिस्म से
वो " सौरभ " चुरा ले गई है
ज़रा पूछो इस शाम से
ये चुप क्यों है।

