सैलाब (log 16)
सैलाब (log 16)
वफ़ा हमारी, बेखबरी उनकी, वह क़यामत ढाती रही
एक लम्हा ही तो था, तरसते थे दीदार को हम, जब
खिलखिलाते हुए उभाड़ सक्रिय हो कर उमड़ने लगे
मनचली अठखेलियाँ करते देख, क्यो न आहें भरते?
हवा का चंचल झोंका खेलता रहा उनकी लटो के संग
आज़ादी के पल थे, घुलकर बिखरना ग़ज़ब ढाने लगा
उगलियाँ सहज ही बालों को सँवारने, सरकाने लगी थी
भा गया, आपनी रचनाओ मे मन मोहक रंगो का भरना,
धूप छाँव का मिल और उभरते निखार में उनका जुनून?
कशिश सीने मे थी बंदिशें क़ैद करती रही हमारे अरमान
नज़रें न हटा सके हम करते रहे अपने रसूख से ही सवाल
परदा ही तो था उनका हमसे, जब मुख़ातिब हुए थे वो!
आधार अधर सब लुप्त हुए, ओझल हो गई छवि उनकी;
कुछ था मुस्कुराहट मे एहसास जो प्रलय का कारण बने!

