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सीमा शर्मा सृजिता

Abstract

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सीमा शर्मा सृजिता

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साम्राज्य

साम्राज्य

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किसी युद्ध में जीती जमीन का 

कोई टुकडा़ नहीं हूं मैं 

जिस पर शासन करो तुम  

जिस पर लगाकर मुहर अपने नाम की 

अपने अधिकार क्षेत्र में करो तुम 

मैं भी हाड़ - मांस से बनी हूं 


बिल्कुल तुम्हारी ही तरह 

मेरे सीने में भी धड़कता है दिल 

एक मिनट में बहत्तर बार

मेरी पलकें भी झपकती है 

बिल्कुल तुम्हारी ही तरह 

मुझे भी महसूस होती है भूख और प्यास 

मुझे भी आती है नींद और नींद में सपने 


मेरी मन में भी जागती हैं इच्छायें 

मेरे शरीर के कुछ अंग भिन्न होने से 

मैं तुमसे इतनी भिन्न नहीं हो जाती 

कि तुम मान बैठो स्वयं को मेरे मालिक 

और मैं तुम्हारी दासी 

मेरी ये आंखें भी देखना चाहती हैं 


तुम्हारी आंखों में स्वयं के लिए सम्मान 

मुझ स्त्री को भी ईश्वर ने 

उतने ही प्रेम से गढा़ है 

जितने प्रेम से बनाये हैं उसने पुरूष 

सुनो! मुझ पर शासन नहीं 

मुझसे प्रेम करो तुम  


तुम्हारे साथ प्रेम के एक क्षण के लिए 

 मैं न्यौछावर कर दूंगी करोडो़ं साम्राज्य।


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