रूह
रूह
रूह के आइने से बोलो क्या कुछ छुपाओगे,
बिन बोले ही उसे तुम बयां करके जाओगे,
रहोगे रूह के आइने में गुनाहगार तुम,
बिन उसके इजाजत के कुछ कर तुम जाओगे।
रूह सदा सच्चा हम झूठे बन जाते,
अपने मन के चोर को खुद से ही हम छुपाते,
बात बेबात खुद को क्यों दोषी ठहराओगे,
रूह को अगर जब कभी तुम चोट न पहुँचाओगे।
रूह गवाह सदा बनता हमारे आदतों का,
उससे बोलो कब छुपता हमारे गुनाह सदा।
रूह से पर्दा न करो फिर जीवन सफल पाओगे,
रूह को अगर दुनियावी दाँव पेंच से बचाओगे।
जिस्म का वजूद क्या रूह के बिना सोचो,
रूह का अस्तित्व क्या जिस्म के बिना कहो,
अपने ही जाल में तुम उलझ के रह जाओगे,
रूह के नजर में सुर्खरू कब बन पाओगे।