रूह की आग
रूह की आग
छोड़ दिया तुमने,
हमे इस मंजर पर,
जीने की चाहत नहीं,
और मरने की इजाजत भी नहीं।
जाना ही था तुम्हे, तो प्यार करना क्यों सिखाया?
और अगर इतना प्यार था, तो साथ क्यों नहीं निभाया?
तोड़ दिए जो तूने ये वादे,
साथ जीने - मरने के,
बिखर गई हूं इस कदर,
पुरजे भटक रहे है दर - दर।
क्या तुझे आखिरी बार भी गले लगाने को ख्याल ना आया ?
टूटे दिल को संभालने का भी ख्याल ना आया?
पीहर ने तो , सौंप दिया हमे,
किसी और को,
कहकर - क्या अकेले ही रहना है जिंदगी भर ?
अब उसके बाहों में,
जिस्म की जरुरते तो हो जाती है पूरी,
पर रूह की आग नहीं है बुझती,
ये तो बस तेरे एहसास को है ढूंढती।
