रक्षा नहीं प्रण
रक्षा नहीं प्रण
तुम लो प्रण कि अब कोई
आँख भी न उठाएगा
फिर तुम्हारे नाम भी
इतिहास का पन्ना पलटा जाएगा।
वो तो है नाजुक फूल सी
सोचती दुनिया है उसके जैसी ही
पर नहीं जानती ये दुनिया
उसे तोड़ बिखेरना चाहती ही।
है मान्यता, हो तुम रक्षक
हूँ मानती, है वो सशक्त
पर बंधी थी वह अपने स्वभाव से
कोमल निश्छल स्वतंत्र भाव से।
थी कर सकती वह रक्षा खुद भी
पर थी मढ़ी गई भाई और पिता के सिर ही
क्यूँ डराता है समाज सिर्फ उसको ही
क्यूँ डरता नहीं अपनी सोच से भी।
वो है देवी वो है शक्ति
उससे ही है समस्त सृष्टि
वो है माया वो है प्रकृति
अब वो केवल अबला नहीं।
क्यूँ मिलती है सजा बिना गुनाह के ही
तुम मान लो ये खनकती चूड़ी
उठाएगी सारी जिम्मेदारियाँ।
तुम जान लो ये बंधी पायल
तोड़ेंगी सारी बेड़ियाँ
हाँ है धरा पर नायाब ये नारियाँ।।