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Vijay Kumar parashar "साखी"

Abstract Tragedy

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Vijay Kumar parashar "साखी"

Abstract Tragedy

रिश्तों में घनघोर निराशा

रिश्तों में घनघोर निराशा

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रिश्तों में घनघोर निराशा फैली है

हर रिश्ते की गंगा अब हुई मैली है

स्वार्थ की हुई हर रिश्ते की थैली है

इत्र में रहकर बदबू दे रही चमेली है

फूलों की रूठ गई अब हर सहेली है

साथ रहते भले साखी वो अपने,

पर बुरा करने के देखते वो सपने,

ऐसे लोगों से हुई दुनिया ज़हरीली है

रिश्तों में घनघोर निराशा फ़ैली है


अपने गले लगकर गला काटते है,

ऐसे रिश्तों से जिंदगी हुई सौतेली है

अपने साथ रहकर थाली चाटते है

समय आने पे अपने को काटते है

इनसे बंधुत्व अमृतधारा हुई कसैली है

रिश्तों में घनघोर निराशा फैली है


फिर भी जलाना ज्योति अलबेली है

जिनसे हल हो जीवन की पहेली है

न कोई रिश्तेदार दे सके तुझे ताने

तुझे गाने है, जीवन के वो गाने

हर जगह हो बस तेरे ही अफसाने

जलाकर दीपक साखी सच्चाई का,

जीवन को दिशा देनी तुझे नवेली है

और बनानी फ़लक पे तुझे हवेली है



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