रिश्तों की डोर
रिश्तों की डोर


कुछ रिश्तों का पहचान
उन हवाओं सी होती है,
जिसमें घुली होती है
कुछ रातों की अनकही बातें,
जो मन के अलमारी में
पड़ी-पड़ी खुद को मिटाते,
थोड़ी-थोड़ी धूल और
मकरियों की जाल से,
घिरकर मटमैली हो जाती है
कुछ अपनो के खो जाने के डर से,
कि कहीं टूट ना जाए
वे रेशम की पतली सी डोर,
जो रिश्तों को बाँधे दिख रही है
मौसम दर मौसम,
अपने एवं अपनों के दिल के
गांव एवं शहर के बीच...!
चाहे उस पतली सी डोर,
के हवाले ना जाने कितने
क़िस्से हैं उन हादसों के,
जो हमें गिराती रही है
औंधे मुंह एक गहरी खाई में,
जहां बस अंधेरों का
साम्राज्य फैला है सूरज से इतर,
उसके रौशनी से दूर कहीं
गुमनाम सी पहेली भरी,
दुनिया में जहां जीना मरना
रोज का हिस्सा सा लगता हो...!
तो क्यों ना हम ऐसा करें कि,
वक्त रहते बेवक्त से जीवन के
हिस्सों को कहीं से खाई बनाने वाले,
किरदारों से दूर फेंक दें
जो रिश्तों के भीतरी परत को,
दिन प्रतिदिन खोखली करती जा रही है
उसे भर दे मोहब्बत की मिट्टी से...!
जहां सूरज की रोशनी पड़ते ही
मिट्टी में प्राण आ जाए,
मिट्टी उपजाऊ बनकर उभरे
तब अपनों के बीच जब नोकझोंक भी हो,
तो उसे हम समय की जरूरत समझे बस
क्योंकि बदलते मौसम का हाल,
परिवर्तन का संकेत देता है
और बेवजह लेकिन जरूरी हवाएं
जो बहती रहती है अथक,
बारिश के झरोखों में खुलकर
वह बस कहा करती है खामोशी से,
अपने वेदना को अपनों के संवेदना
प्राप्त करने के लिए, ताकि वह;
लिपट सके अपनों के बीच...!