रहस्य स्त्री और धरा का
रहस्य स्त्री और धरा का
सब कहते
स्त्री है अबूझ पहेली
किन्तु नही पता उनको
वो खुद ढ़ूंढ़ती
धरा की पहेली
और ढ़ूंढ़ते ढ़ूंढ़ते
पता नही कब
बनी गई उसकी सहेली,
हे देवी कान्ता
अलक में सिमटा है
सर्वत्र अमृत तुम्हारा
तुम संरक्षिका जननी
जानती हो क्षमता स्त्री की
इसलिए तो विश्वास कर
दे दी कुंजी धरा की
अमानत के रूप में,
प्रकृति स्त्री
एकदम एक समान
वक्त बीत गया बहुत
अब तो समझो उसको
बस देना जानती है
संरंक्षण और प्यार
बदले में कुछ भी नही
अपनों से वो लेना चाहती,
स्त्री स्वभाव में
कितने गहरे
राज़ छिपे हैं
किसे पता ?
इनका रहस्य तो
आज तक नहीं जान पाये
विधि के विधाता भी
बस स्त्री को है पता।