रेत
रेत
गर्म जिस्म पर ....
जब रेत ठहरता है ,
और पानी की कुछ बूंदें ,
तेरी याद दिलाती ,
तब तेरे नाम से ,
ये बदन और जलता है।
जी तो चाहता है ,
ढ़ाँप लूँ खुद को रेत में ही ,
अपने अंदर की आग को ,
थोड़ा और जलाने ,
फिर बुला लूँ तुझे उस रेत में ही ,
और आग अपने अंदर भड़काने।
तू जब करेगा उस रेत में ,
मेरे संग अठखेलियाँ ,
वो फिसल जायेगा ज़िस्म से ,
शर्म ~ओ ~हया गिराने ,
तू खींच लेगा तब ,
मुझे खुद से लिपटाने।
ठहर जायेंगी तब वो ,
कुछ पानी की बूँदें ,
जो गर्म इश्क की गवाह होंगी ,
बदन पसीने से लथपथ होंगे ,
साँसों में ख्वाईशें बेइंतिहा होंगी ,
जो उस रेत की महरबां होंगी।