रब ही जाने!
रब ही जाने!
क्या ग़लत है क्या सही ये,रब ही जाने, रब ही जाने
मौत है या ज़िन्दगी अब, रब ही जाने रब ही जाने।
अपनों को पीछे छोड़,गैरों में थी अपनों की तलाश,
फ़िर उन्ही से खा के धोखे, ख़ुद में रहते थे निराश।
एक छत के नीचे अब,आए हैं कैसे हम न जाने।
क्या ग़लत है क्या सही ये,रब ही जाने रब ही जाने।
पानी, हवा और ये ज़मीं,अालूदगी से थी भरी,
कोशिशें करते रहे सब,मन की इंसा ने करी।
पाक सारा हो गया अब,माने कोई या न माने
क्या ग़लत है क्या सही ये,रब ही जाने रब ही जाने।
पेड़, पानी और हवा सब,नेमतें हमको मिली थीं,
पा के कुदरत के ये तोहफ़े,ज़िन्दगी अपनी खिली थी।
फ़िर बिखर जाएगा सब,गर बात कुदरत की न माने
क्या ग़लत है क्या सही ये,रब ही जाने रब ही जाने।
बिजली, ईंधन और पैसा,मोल इसका कुछ नही था,
ख़र्च बेदर्दी से करके,दुःख ज़रा सा भी नही था।
सब बचा लाई है कुदरत,राज़ उसके वो ही जाने,
क्या ग़लत है क्या सही ये,रब ही जाने रब ही जाने।
जिनको कमतर इस जहां में, हमने समझा उम्र भर,
आज घर पे खा रहे, मेहनत- कशों के दम ही पर।
उन किसानों और ज़मीं की,आज हम कीमत हैं जाने
क्या ग़लत है क्या सही ये,रब ही जाने रब ही जाने।
इस ज़मीं को अब बचाना,अपने बस में ही नहीं था,
इसके दामन को सजाना,अपने बस में ही नहीं था।
ख़ुद की अय्यारी दिखा, आया है रब इसको बचाने
क्या ग़लत है क्या सही ये, रब ही जाने रब ही जाने।