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Nirupama Naik

Abstract

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Nirupama Naik

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मेरी पुकार......

मेरी पुकार......

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बर्फीले पहाड़ों से जन्मी हूँ

धरा पर बहती आयी हूँ

आज सुनो मेरी ज़ुबानी

यहां जो कुछ पाई हूँ।


निर्मल, निष्पाप से प्रारंभ मेरा

यात्रा में हर एक के पाप को समेटा है

धरा के वासियों ने कभी अभिषेक किया तो

कभी मेरे सुंदरता को लूटा है।


कभी बन जाती हूँ पवित्र

घर-मंदिर को सींच लेते हैं

तत्क्षण अपवित्र करते हुए

मुझमें सारी गंदगियां डाल देते हैं।


मुझे समझकर पानी का श्रोत मात्र

न जाने क्या कुछ बहा देते हैं,

दूषित करने के बाद, पराबैंगनी किरणों से

शुद्ध बना कर पी लेते हैं।


मुझमें कूड़ा-कचड़ा फेंक दिया

उसे भी अपने साथ ले चलती हूँ

हाँ इसी तरह इस धरती पर

मैं लाड़-प्यार से पलती हूँ।


अनचाहे गर्भ की पूंजी को भी

निर्मम होकर डाल दिया मेरी झोली में

रंग देते हैं मुझे भी अपने जैसा

फ़ागुन के उस होली में।


मृत शरीर की निर्जीव कोशिकाओं का

मुझमें ऐसा प्रवाह चलता रहता है

कि मुझे पीते हुए जीवों का

'सूरज' धीरे-धीरे ढलता रहता है।


पेड़ों को ऐसे काटते गए

के भूजल रूखी पड़ी है

अब हाहाकार है कर्णाटक, तमिल नाडु में

कि कावेरी सुखी पड़ी है।


दिल्ली में मैं यमुना हूँ

पर रासायनिक अपशिस्टों ने ऐसा घेरा है

विस्मित हूँ, किस रूप में बहकर आई थी

औऱ अब क्या रूप मेरा है ?


गंगा बनकर निकली थी गंगोत्री की कोख से

कलकत्ता में आकर थम गई

वहाँ का सारा कचरा देखो

जैसे मुझिमें ही जम गई।


मैंने कभी कहा नहीं इंसानों से

की कलश में धारण करो

बस जो रोग फैलते हैं मेरे दूषित होने से

उनका निवारण करो।


आवाज़ नहीं है मेरी फिर भी

कुछ लोग मेरी पुकार हैं सुन रहे

धीरे-धीरे कुछ-कुछ मिलकर

मुझमें से कचरों को चुन रहे।


वक़्त रहते मुझे सहेज लो

क्या पता कब मिट कर गुज़र जाऊं

आज बह रही हूं श्रोत सा....कहीं

कल सिर्फ 'छींट' में न नज़र आऊं।


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