मैं निरंतर बह रही हूं
मैं निरंतर बह रही हूं
मैं निरंतर बह रही हूँ
वसुंधरा में चल रही हूं
भगीरथ की यादों संग
कलयुग में भी एक पुत्र
सदैव मैं खोज रही हूं
मैं निरंतर बह रही हूं !
मैं उपवनों का माँ हूँ
उन्हें स्तनपान करा रही हूं
भोजन दे खेला रही हूं
मैं निरंतर बह रही हूँ !
मेरे अंदर अनेक पीड़ा है
कई युगों से खौल रही हूं
पर लोगों को तृप्त कर रही हूं
मैं निरंतर बह रही हूँ !
मुझ में कई चिताएं समाए हैं
उन्हें सर्वदा मोक्ष दे रही हूं
क्या पुण्य, क्या पाप ?
सब मुझ में ही शुद्ध हो रहे हैं
मैं निरंतर बह रही हूँ !
जीव-जंतुओं का अमृत हूं मैं
उनके हृदय का धड़कन हूं मैं
कई तो मेरे ही कोख़ में पल रहे हैं
मेरे खाये भोजन ग्रहण कर रहे हैं
जो मेरे स्थल के पुत्र मुझे दे रहे हैं
पर, उस भोजन से रोज मर रही हूं
मैं निरंतर बह रही हूँ !
मैं सब की प्यास बुझाती हूं
पर खुद ही प्यासी रह जाती हूं
मेरे धारा में उफान ख़ूब हैं
मन मेरआकुल ख़ूब हैं
तेज गति मेंव्यथा ख़ूब हैं
मैं निरंतर बह रही हूँ !
मेरा दर्द वह समुंदर ही जानता हैं
जब आख़िर में उसमें मिल जाती हूं
खूब शोर के साथ रोती-चिल्लाती हूं
उसकी बाहों में लिपट सो जाती हूं
पर, देखो न बिल्कुल पागल हैं वह
मेरे आसूं को देख खुद ही रो पड़ता हैं
और दुनिया को बरसात दे देता हैं वह
पर, ख़ुद को ढ़ेर सारी इश्क़ का प्यास !
लेकिन कभी मुझसे कुछ न कहता हैं वह
मैं निरंतर बह रही हूँ ! ा
