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Usha R लेखन्या

Abstract

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Usha R लेखन्या

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हर स्त्री में

हर स्त्री में

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हर स्त्री में है एक पुरुष, जो करवाता है उससे वह साहस

वह साहस, जिसे न कर पाती अगर, तो कर जाती कूच

कूच इस आत्मबोध से, कूच इस आत्मावाज़ से,

कूच इस आत्मत्राण से


कभी घर की उलट पुलट चीज़ों को सहेज कर रखना

कभी घर में यहाँ वहाँ फ़ैले कपडों को समेटना

क्या बनाऊँ आज पूछना, जवाब न मिलने पर मन मसोसना

कभी किताबों को करीने से लगाना तो कभी

शोपीस को अच्छे से सजाना

 

हर वक्त बस यही ख़ुद से पूछते रहना और

रखना एक ही ख्याल, घर में सब ठीक तो होगा न ?

 छिपाए अपने से भी, और बन के रहना अंजान

अपने सपनों से, अपनी आशाओं से, अपने ख्यालों से

वो कर जाती है कूच


कूच कभी इस आत्मबोध से, कूच कभी इस आत्मावाज़ से

कूच कभी इस आत्मत्राण से कि

उसमें है वह एक पुरुष जो करवाता है वह साहस

साहस उस कल्पना से परे का, साहस उस विज्ञान से परे का

साहस उस जहान से परे का,


बचपन के खेल खिलौने उसको थे बहुत ज़्यादा प्यारे

कभी गुडियों का खेल, तो कभी गिल्ली डंडे का खेल

किसी से भी न पीछे रहने का खेल, सबसे आगे निकल जाने का खेल

इन्सानों के इस जंगल में फिर उसे भी बनना पड़ता है जंगलवासी

जहाँ उसने न सोचा था कभी


कि उसमें होगा वह एक पुरुष , जो करवाता है साहस

साहस खुद से भागने का, साहस कुछ भी कर गुजरने का

साहस असंभव को संभव करने का

क्योंकि उसमें होता है वह एक पुरुष जो करवाता है वह साहस

वह साहस वह साहस वह साहस।


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