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Geeta Upadhyay

Abstract

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Geeta Upadhyay

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क्योंकि इधर कुआं उधर है खाई

क्योंकि इधर कुआं उधर है खाई

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डिग्री नहीं है पास,मजदूरी पर ही टिकी है आस

चुका दूंगा कर्ज सारा, ढेर सारा रूपया कमाऊंगा।


अब कभी भी ना में फांसी खाऊंगा

किसान था में ये सोच कर शहर आ गया।

ऐ-ख़ुदा तूने मुझे ये किस शहर में पहुँचा दिया

दम घुटता है मेरा,साँस भी रूकती है।


न जाने ये बददुआ किसकी है

दोस्तों मेरा नहीं है ये घर,

इसे किराए का मकान कहते है    

कुछ मेरे जैसे तो कुछ, मुझसे भी बदतर इनमे रहते हैं।


क्या इसीको 21वीं सदी कहते हैं

पानी से फूला दरवाजे का प्लाईबोड,चूं-चूं करता पंखा,

बिन जाली की खिड़की से आती गर्म हवा,

पुराना सा रेडियो,और हिलती तस्वीरों वाला टीवी।


छत से झड़ता पथ्तरों का चूरा,सीली दीवारों से निकली सफ़ेदी

दरारों पड़ा ऊबड़-खाबड़ फ़र्श,लटकी सी ढीली पड़ी चारपाई।

लोहे का पुराना तवा,साथ बदरंग सी परात।

दो छोटी-बड़ी थालियां,टूटी हुई कढ़ाई,


फ़टे कपड़ो का बना तकिया,पैरों तक न पहुँचने वाली चादर

और एक उधड़ी हुई चटाई।

मिट्टी के तेल की स्मेल मारती,स्टोव पर बनी रोटी

पानी वाली नाममात्र को दाल,याद आती है,


तब गावं की तीखी खटाई

सूखे गले सा पड़ा हेंडपम्प,टॉयलेट का दरवाजा चर-चर करता।

बाथरूम में पर्दा ही दरवाजे का काम है करता

बिजली आती नहीं महीनो तक, लाल तार सा बल्ब जलता है।


कपड़े धोने का साबुन ही ब्यूटीबार बनता है

गीली बोरी से ढकता हूँ खरीदी हुई सब्जियाँ।

टेड़ी सी सुराही में पीता हूँ पानी,

टपक के बरसात में घर तालाब बनता है।


साँप-बिच्छु तैरते हैं,दिल मेरा जोर -जोर से धड़कता है।

दोस्तों क्या मैं कर्ज उतार पाऊंगा ?

ये कैसी घड़ी है आई ? मैने हर हालात में जान है गंवाई।

"क्योंकी इधर कुँआ उधर है खाई।"


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