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Babita Consul

Abstract

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Babita Consul

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नदी हूँ मैं गंगा

नदी हूँ मैं गंगा

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मुझे पचानते हो 

मै हूँ जीवन दायिनी 

मै अपना परिचय देती हूँ 

अपने पितरों की मुक्ती हेतु

राम के पुर्वज राजा सागर ने 

किया था घोर तपस्या 


मुझे स्वर्ग से लाने को 

विष्णुजी ने प्रसन्न हो 

तब विष्णु जी के कथन पर

ब्रह्मा के आह्वान पर मेरी 

प्रचंड धारा को मार्ग मिला


शिव की जटा पर तब

मैं प्रकट हुई धरती पर 

वीणा सा झलंकृत किया 

मेरी जल की धारा ने 

सात सुरों में प्रथम सुर सा,

ध्वनि से भर।


मूक सृष्टि में ध्वनि का संचार किया 

हवाओ, सागर, पशुपक्षी,

जन जीवन को वाणी मिली,

नदियों से फ़ुटी,कलकल,

शब्द, माधुरय रस का संचार हुआ।


माघ शुल्क पंचमी पर अवतरण हुआ

वागीशवरी नाम पडा़।

धरा का फुलों ने श्रृंगार किया

रंगो से भरी मुझ से धरा बसंती  

देख देव निररख रहे देवलोक से।


भौचक्के देख रूप बसंती धरा 

मैं माँ गंगा में थी 

सिर जनहारिनी, जगत पालिनी 

मुझसे खुशहाल थे

शहर- शहर, गावँ- गावँ 

कल कल करती धारा मेरी 

देती थी मन को शीतलता 


प्यासों की प्यास बुझाती थी  

गोदी थी मेरी हरी भरी 

देती थी जीवन का पैगाम 

मैं कब थी प्रलयंकारी 

ना थी विनाशनी 

करके मुझको दूषित 


बनाकर बाँध मुझपर 

मेरी बेबसी में सब टूटे बाँध 

अब तांडव लगता तुमको 

संतुलन टूटा जब मेरा 

नेस्तनाबूद हो गया जीवन 


हो गये समाधिस्थ मासुम जीवन 

बह गये पशु लाचार

जीव जन्तु के उजड़े नीड़ 

त्राहि त्राहि जल की मची 

बिगड़ा सब संतुलन प्रकृति का 

ना माने मानव प्रकृति के नियम

 

काटे पेड़, गन्दगी मैला डाल कर

कर दी मुझ को मैली 

मेरे अमृत जल को बना डाला जहर

रे मानव अब चेत जा  

धर ले अब भी ध्यान 

मत कर ऐसा विकास 

 

ना उगा जंगल कंकरीट के 

पर्वत सब मिटा रहे हो 

ले विकास की आड़ 

हिम की छाती जल रही 

बह चली बर्फीली चोटी 


अन्तस मे है वेदना शीतलता में ताप,

शीतल नहीं है देह 

चादँ पर जानें की बात करता 

दूषित हो रहा पर्यावरण सब 

आने वाली पीढी दे विरासत

 

दे रहे धूल, धुआ, रोग,

धरती माँ कह रही अब ना खोदो 

खोद खोद कर कर दिया

मुझको बंजर बेहाल।


अब भी चेत हे मानव मत कर 

रोक ले इस विनाश को 

समय है अभी।

प्रकृति का कर सम्मान 

ना काटो तुम वन संपदा

ना दूषित कर मुझे।

मैं हूँ जीवन दायिनी 

मैं हूँ माँ गंगा।


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