रौशनी की ओर
रौशनी की ओर
बिजली तो है चली गयी
अब मोमबत्तियाँ कौन जलायेगा
कौन अँधेरे कमरों से
हर शख़्स को खींच के लायेगा
"अंताक्षरी" किसी के ज़ेहन में आया
और "हरी का नाम" लेकर किसी
ने कारवाँ आगे बढ़ाया
फ़ातिमा ने 'म' से जैसे ही एक गीत गाया
बगल वाली सुधा को तब खेल समझ में आया
ज़ोया दौड़ते हुये एक लौ जलाने को भागी
पर हवा तेज़ थी और उसे चाहिये था कोई साथी
'ओ रिया घर आ जा अंताक्षरी खेलेंगे'
ज़ोया ने फिर दोहराया
तब लौ का सहारा बनने को
रिया ने अपना हाथ बढ़ाया
परवेज़ ने बिजली और अंताक्षरी दोनों की
मिली भगत को आज़माया
फिर हर चेहरे को गौर से देखकर
"आज़ादी" का ज़िक्र फ़रमाया
"मौलाना और आज़ाद का एक
मज़हब था बस देशहित
इक ने चिराग जलाया था
दूजे ने की उसकी रक्षा फ़िर"
यह खेल अंताक्षरी का
अँधेरों में क्यों याद आता है
क्यों यह लौ जलाने को
अँधेरा तरसा जाता है
क्यों चिराग रौशन करने में
सारी बाधायें हैं आती
क्यों नहीं यह कहानी छोटी सी
हर किसी की समझ में आती