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रूपेश श्रीवास्तव 'काफ़िर'

Romance

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रूपेश श्रीवास्तव 'काफ़िर'

Romance

रात में तुम छत पर ना जाया करो

रात में तुम छत पर ना जाया करो

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आज चाँद कुछ घबराया सा था,

बादलों की ओट में छुपा बैठा था,

रह रह के झाँक लेता,

हैरान होता, अपने अस्तित्व को लेकर परेशान होता। 


सोचता - "क्या ऊपरवाले ने नया चाँद दे दिया है फलक को"

इतनी चमक, इतनी सुन्दरता, इतनी मनमोहकता!

अब मेरा क्या होगा? कौन चाहेगा मुझे?

इसके सामने, मैं तो कुछ भी नहीं।


हाय! विधाता ने यह क्या किया?

कैसा ज़ुल्म किया मुझपर?

मेरे रहते ये दूसरा चाँद?


भय व ईर्ष्या का अन्तर्द्वन्द्व,

आज चाँद के मन में चल रहा था,

कुछ देर तुम और ठहर जाती,

जो छत पर, तो बेचारा चाँद,

बेमौत ही मर जाता,


इसीलिए, मैं बार बार कहता हूँ-

"रात में तुम छत पर ना जाया करो।


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