रामायण ६० - शिव-पार्वती वार्तालाप
रामायण ६० - शिव-पार्वती वार्तालाप
ये सब कथा सुनाएं शिवजी
मन से सुनतीं पार्वती हैं
कहें अब संदेह न रहा मुझे
प्रताप राम का जान गयी मैं|
आप कहें कि काकभुशुण्डिने
गरुड़ को थी ये कथा सुनाई
इतनी अचल राम की भक्ति
कैसे एक कौए ने पाई|
कैसे पाया शरीर कौए का
और फिर इतना ज्ञान था पाया
गरुड़ तो प्रभु का वाहन है
काकभुशुण्डि के पास क्यों आया|
शिव कहें फिर पार्वती से
गरुड़ भी ऐसे प्रश्न थे लाये
सुनो ध्यान लगाकर तुम अब
हम तुमको ये कथा सुनाएँ|
तुम पहले दक्ष पुत्री थी
सती थी तुम, तुम ये जानो सब
पिता ने किया अपमान तुम्हारा
प्राण त्यागे थे तुमने तब|
विरह में मैं भटकता फिरता
एक दिन पहुंचा नील पर्वत पर
मुझे पर्वत वो बहुत भा गया
चार शिखर उसके बड़े सुँदर|
हर शिखर पर विशाल पेड़ एक
बरगद, पीपल, पाकर और आम
सुंदर एक तालाब, जहां पर
काकभुशुण्डि करें विश्राम|
हरि भजन दिन रात करें वो
पीपल के नीचे ध्यान हैं धरते
पाकर के नीचे यज्ञ करें वो
आम के नीचे पूजा करते|
हरि कथाओं के प्रसंग सब
बरगद के नीचे होते हैं
अनेक तरह के पक्षी आकर
उन कथाओं को सुनते हैं|
तालाब में जो हंस हैं रहते
वो भी आते कथा को सुनने
कौतुक देख आनंद मुझे हुआ
हंस शरीर तब धरा था मैंने|
कुछ समय मैं रहा वहां पर
रघुनाथ का गान सुना था
लौट आया था फिर कैलाश को
सुनकर सब सुख बहुत मिला था|
अब इतिहास सुनाऊँ मैं तुम्हे
गरुड़ गए क्यों पास काक के
युद्ध में राम नागपाश में बंध गए
ब्रह्मा ने भेजा गरुड़ को काटने|
बंधन काट दिए थे राम के
तब गरुड़ को हुआ संदेह ये
करें विचार, ये तो परमेश्वर
प्रभाव मुझे कोई क्यों न दिखे|
वो हो गए थे मोह के वश
हृदय में उनके भ्रम था छाया
नारद के जब पास गए वो
वो सोचें ये प्रभु की माया|
ज्ञानिओं का भी चित हर लेती
मुझे भी है कई बार नचाया
मेरे समझाने से मिटे ये मोह ना
ब्रह्मा जी के पास भिजवाया|
ब्रह्मा जी के पास गए वो
बोले ब्रह्मा, इसमें आश्चर्य नहीं
मुझे भी इसने भरमाया है
शिव दूर करें इसे, तुम जाओ वहीँ|
मेरे पास गरुड़ थे आये
मैंने कहा, भेजूं मैं तुम्हे वहां
जहाँ संदेह दूर हो जाये
नित्य कथा प्रभु की होती जहाँ|
नील पर्वत पर भेजा उसको
जहाँ काकभुशुण्डि रहे हैं
बरगद के नीचे बैठ वो
पक्षिओं से सब कथा कहें हैं|
