राहों में भटकती मैं चली
राहों में भटकती मैं चली
मिल जाओ कभी किसी मोड़ पर,
इसी ख़्वाब में आजकल,
राहों में भटकती मैं चली,
कभी इस गली कभी उस गली।
मंजर नए सब दिख रहे हैं,
राहें खत्म होंगी कहां,
तुम मिलो जिस छोर पर बस,
मेरी मंज़िल है वहां,
होश ख़ुद का भी कहाँ है,
उड़ चली बन मनचली,
राहों में भटकती मैं चली,
कभी इस गली कभी उस गली।
रास्तों की धूल सारी,
आशिक़ी के रंग में,
रंग दिया सारा शहर और,
मन भी मेरा संग में,
सब रास्ते सारी गली अब,
महकती बन के कली,
राहों में भटकती मैं चली,
कभी इस गली कभी उस गली।।