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Simpy Aggarwal

Abstract

4  

Simpy Aggarwal

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क़ुदरत का हिसाब

क़ुदरत का हिसाब

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कितना बदल गया इंसान, 

कल तक बनता था महान, 

आज छुपाये घर में अपनी संतान, 

और बचाये अपने प्राण !

थक गए वो लोग कुछ दिन के पर्दों से, 

जो सोचते थे की औरत की शोभा है पर्दों में,

कोरोना के क़हर ने दिखा दी सबको अपनी औकात, 

जीवन उसी का नाम है,जो जिया जाये अपनों के साथ !

जो इंसान जानवरो का बनाता था तमाशा, 

खेलता था उन मासूमो से ऐसे,

जैसे हो जुआरी का पासा! 

जकड़ा था जिन मासूमो को बेड़िओ में, 

कुदरत का हिसाब तो देखो, 

आज लटका है वो मानव, 

ज़िन्दगी और मौत की सीढ़ीओ में! 


एक वायरस के हाथ क्या फैले, 

उन अत्याचारियों से गए न झेले, 

सैनिटाईज़र की बोतल में बंद, 

क्यों ! खो गये न, ज़िन्दगी के मेले !


आज़ाद है वो जानवर भी तुमसे कही अधिक, 

बेशक वो मूक सही, भावनाये है उनमे सर्वाधिक! 

सिकुड़ा सिसका बैठा देख तुम्हे, 

वो मज़ाक नहीं उड़ाते है,

जैसे तुमने सदा बनाया उनका, 

वो तुम्हारा तमाशा न बनाते है !

इस काले घने जंगल के बीच, 

आज अकेले बैठे हो, 

सिमटे चार दीवारी में, 

क्यों, अब कहो ! क्या तुम नहीं जानवर जैसे हो !


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