वो शादीशुदा डिग्रियाँ
वो शादीशुदा डिग्रियाँ
आज मज़बूर हूँ मैं,
नौकरी ढूँढने को !
न ! पैसे की कमी नहीं,
नहीं..नहीं ! शौक भी पूरे हो जाते हैं !
फिर नौकरी???
पैसा नहीं इज़्ज़त कमानी हैं,
न...न ! बाहर वाले क्या कहेंगे...
परवाह किसको है उन चार लोगों की !
स्वाभिमान पर वार अपने ही तो करते है,
तुम्हारी पढ़ाई को फ़िज़ूल बता,
सिर्फ कुछ ताने ही तो कसते हैं !
तलवार-सा काटते है पल-पल,
आज किनारे उन डिग्रीयों के,
ग़ुरूर था जिन पर मेरे माँ-बाप को,
और शायद मुझे भी,
हाँ, शायद ही तो,
क्यूंकि आज यक़ीं ही नहीं होता,
अस्तित्व पर अपने,
जो खो गया है तानों के ढेर में !
वो मान्य डिग्रीयाँ गुहार लगा रही हैं,
मान्यता प्राप्त करने के लिए,
मेरे अपनों से ही,
रो रही है पड़ी उस अलमारी में !
उन वर्षों की मेहनत का हिसाब,
और अपनों की नज़रों में उनकी इज़्ज़त,
कहाँ से लाकर दूँ उन्हें !
मुझे पढ़ना बहुत पसंद था,
हाँ, था !
क्यूंकि पढ़ाई को साबित करने के लिए,
कमाना पड़ेगा ऐसा पापा ने सिखाया ही नहीं !
काश ! संस्कारों के साथ-साथ,
ये भी सिखाया होता,
तो शायद मेरा पढ़ना... और पढ़ना... और पढ़ना...
शौक और ख़ुशी से,
चार पैसे कमाने की मज़बूरी में नहीं बदलता !
अपनी पढ़ाई का उपयोग करना,
और कमाना किसको नहीं पसंद,
आत्मनिर्भरता तो वरदान है,
एक शादीशुदा लड़की के जीवन में !
मैं भी चाहती हूँ नौकरी करना,
पर खुद की ख़ुशी से,
खुदखुशी से नहीं !
पर शायद पढ़ा लिखा होना,
एक श्राप हैं,
और चार पैसे न कमाना,
तानों के रूप में उस श्राप का परिणाम !
एक वक़्त था,
जब काफी था लड़की का,
पढ़ा लिखा होना,
अपने स्वाभिमान के लिए !
पर आज यदि वो डिग्रीयाँ,
नहीं देती महीने के कुछ कागज़ के टुकड़े,
तो ताने ही तुम्हारी कमाई हैं,
और तुम एक अनपढ़ ही अच्छी थी !
