STORYMIRROR

Simpy Aggarwal

Abstract

4  

Simpy Aggarwal

Abstract

वो शादीशुदा डिग्रियाँ

वो शादीशुदा डिग्रियाँ

2 mins
233

आज मज़बूर हूँ मैं, 

नौकरी ढूँढने को ! 

न ! पैसे की कमी नहीं, 

नहीं..नहीं ! शौक भी पूरे हो जाते हैं ! 

फिर नौकरी??? 

पैसा नहीं इज़्ज़त कमानी हैं, 

न...न ! बाहर वाले क्या कहेंगे... 

परवाह किसको है उन चार लोगों की ! 


स्वाभिमान पर वार अपने ही तो करते है, 

तुम्हारी पढ़ाई को फ़िज़ूल बता, 

सिर्फ कुछ ताने ही तो कसते हैं ! 

तलवार-सा काटते है पल-पल, 

आज किनारे उन डिग्रीयों के, 

ग़ुरूर था जिन पर मेरे माँ-बाप को, 

और शायद मुझे भी, 

हाँ, शायद ही तो, 

क्यूंकि आज यक़ीं ही नहीं होता, 

अस्तित्व पर अपने, 

जो खो गया है तानों के ढेर में ! 


वो मान्य डिग्रीयाँ गुहार लगा रही हैं, 

मान्यता प्राप्त करने के लिए, 

मेरे अपनों से ही, 

रो रही है पड़ी उस अलमारी में ! 

उन वर्षों की मेहनत का हिसाब, 

और अपनों की नज़रों में उनकी इज़्ज़त, 

कहाँ से लाकर दूँ उन्हें ! 


मुझे पढ़ना बहुत पसंद था, 

हाँ, था ! 

क्यूंकि पढ़ाई को साबित करने के लिए, 

कमाना पड़ेगा ऐसा पापा ने सिखाया ही नहीं ! 

काश ! संस्कारों के साथ-साथ, 

ये भी सिखाया होता, 

तो शायद मेरा पढ़ना... और पढ़ना... और पढ़ना... 

शौक और ख़ुशी से, 

चार पैसे कमाने की मज़बूरी में नहीं बदलता ! 


अपनी पढ़ाई का उपयोग करना, 

और कमाना किसको नहीं पसंद, 

आत्मनिर्भरता तो वरदान है, 

एक शादीशुदा लड़की के जीवन में ! 

मैं भी चाहती हूँ नौकरी करना, 

पर खुद की ख़ुशी से, 

खुदखुशी से नहीं ! 


पर शायद पढ़ा लिखा होना, 

एक श्राप हैं, 

और चार पैसे न कमाना, 

तानों के रूप में उस श्राप का परिणाम ! 

एक वक़्त था, 

जब काफी था लड़की का, 

पढ़ा लिखा होना, 

अपने स्वाभिमान के लिए ! 


पर आज यदि वो डिग्रीयाँ, 

नहीं देती महीने के कुछ कागज़ के टुकड़े, 

तो ताने ही तुम्हारी कमाई हैं, 

और तुम एक अनपढ़ ही अच्छी थी ! 


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract