"मन-मंथन"
"मन-मंथन"
घट रहा भटक रहा मानव का ये चंचल मन,
त्याग कर हर लालसा करना होगा मन नियंत्रण!
गहरे विशाल समंदर सा मानव का ये चंचल मन,
इतनी लालसा अमृत की क्या संभव है इस मन का मंथन!
दोहराये यदि इतिहास को न सरल रहा कभी मंथन,
कहा संभव पापी मानव का सहज ही परमात्मा मिलन!
सभी विकार त्याग कर, कर पहले अपना मन नियंत्रित,
क्या है क्षमता विष धरने की जो चाहे मानव परम अमृत!
मन मंथन के आरम्भ में विष सर्वप्रथम निकलेगा,
सभी बुरे विचारों का जब मन स्वयं तिरस्कार करेगा!
इतने गहरे विष का मंथन क्या मानव द्वारा संभव है,
धारण कर ले इस विष को पृथ्वी पर कहाँ ऐसा शिव है!
विष कंठस्थ करने वाली उस शक्ति की यहाँ भक्ति नहीं,
न मन इतना विशाल यहाँ न शिव-शक्ति सा प्रेम कहीं!
मन ही बस समंदर है यहाँ, मन में पाप अनंत है,
विकारों का अंत नहीं, यहाँ आपसी मनों में ही मंथन है!