क़फ़स की सारिका
क़फ़स की सारिका
क़फ़स में इठलाती हुई
एक सारिका
अंत से अनभिज्ञ है
स्वयं में ही स्वतंत्र है
सोचा कहाँ था
उसने सीमाओं का बंधन
जाना कहाँ था
क़फ़स का काला सच
मग्न थी सुमधुर धुन में
चुनकर दिए गए कुछ
दानों को पाकर
मान लिया सौभाग्य अपना
दायरों में सिमटी खड़ी थी
फिर भी मग्न बड़ी थी
अजीब सा दौर चल पड़ा था
वो सरकारें जो उसने चुनी थीं
बदलाव संग सामने खड़ी थीं
देती चुनौतियाँ नित नई
खेल के नियम बदले ज़रूर
पर खेल अब भी वही था
कपाट खुलने और
बंद होने का अंदाज़ वही था
क़ैद तो अब भी थी वो
बस कैदियों सी पहचान नहीं थी
इच्छाओं पर अब चाहिए थे
सरकारों के मोहर
अब तो सांसों पर भी
हस्ताक्षर जरूरी सा हो गया था
तो क्या मोहर की आस में
इच्छाओं का दमन जारी रहेगा(?)
क्या फिर किसी सारिका की सांसे
हस्ताक्षर की प्रतिक्षा में थम जाएगी (?)
मानकर क़फ़स को
सावन का झूला
झूल रही है वो
जैसे यही नियति उसकी
मान रही हो वो ।।