पवित्र या अपवित्र
पवित्र या अपवित्र
जब मन चाहा पवित्र हो जाती
जब मन चाहा अपवित्र
कहो कैसा है यह संस्कार।
कन्या बनाकर पूजी जाती
औरत बना करते प्रतिकार
अपने ही घर में मुझ पर
सदियों से होता यह अत्याचार।
प्रतिमा रूप प्रदान कर पूजते हैैं देवालयों में
उन्हीं देवालयों में जाने पर फिर बंदिश लगाते हैैं
वंश बेल बढ़ाने की खातिर ब्याह कर तो लाते हैैैैं
परन्तु पीड़ा के क्षणों में साथ ना दे पाते हैं।
जिस लाल रंग को सब
शुभ का प्रतीक जानते हैैैैं
उसी लाल रंग के कारण
मुझको अशुभ मानते हैैैैं।
जिस धर्म ने दिया हमको सम्पूर्णता का आधार
काली पन्नी में छिपाकर देते हो उसका उपहार।
जिस धर्म बिना ना नारी जन्मी
जिस धर्म बिना हुआ ना नर का जन्म
कहो कैसे अपवित्र हुआ वह मासिकधर्म।
जब मन चाहा पवित्र हो जाती
जब मन चाहा अपवित्र
किसने दिया तुमको यह अधिकार।